शिवा बावनी | Shiva Bavani

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Shiva Bavani by महाकवि भूषण -Mahakavi Bhushan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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क शिया चार्वनी १९१ कद्‌ मूल 'भोग करें कंद सूल भोग करें, लीन बेर खातीं ले ये बीन बेर खाली हैं ॥ भूषन सिथिल अंग भूखन सिथिल अंग, विजन इलालीं ते वै विजन इलानी हे । भूषन मनत सिवराज बीर तरे शरास, नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ातीं हैं ॥ ७ ॥ भावाथ भूषण कहते हैं कि हे बीरवर शिवा जी, आपके भय के मारे जो मुगल घराने की स्लियाँ बड़े बड़े मकानों के. भीतर परदे में रहती थीं, वे भ्रव भयानक पहाड़ों में छिपी रहती हैं) जो बढ़िया मिठाई खाकर रहती थीं, वे अब कन्द्‌ और सूल अर्थात्‌ पौधों की जड़ें खाकर दिन काट रही हैं। तीन तीन बार भोजन करने बाली बेर बीन बीन कर गुजारा कर रहीं है। सुकुमारता के कारश जिनके शरीर गहना के भार से सिथिल् पड़ जाते थे, अब वे भूख के मारे दुबंल दो गयी है। जो पंखे भलती रद्दती थीं, वे अव निजेन जंगल म मारी मारी फिरती है भोर जो रङ्ञजरित हने पनती थीं वे बिना बद्म के जाड़े में कॉप रही हैं। टिप्पणी यहां यमक अलझ्लार है। जहां एक ही शब्द धार बार आता है, किन्तु हसका श्रथे जुदा जुदा होता जाता है, वदां यमक श्रलङ्कार कशा जाता ह। जेसे पहले “मंदरः से मकान का बोध होता है ओर दूसरे “मंदर' से पहाड़ का । यहां पर मंदर, कन्द मूल, वेर, भूषन, विभन ओर मगन ये शब्द दो दो भथीं मै प्रयुक्त हुए द|




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