रीति कवियों की मौलिक देन | Reeti Kaviyon Ki Maulik Den
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
26 MB
कुल पष्ठ :
637
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)ग्यारह
बृत्ति व्यंजित होती है । यही विभावन व्यापार है, प्रेरक या उद्ोधक स्थिति का होना ।
सो यहाँ भी यह मानने में बाघा नहीं है कि सखी स्वामी-स्वामिनी की वत्ति का
ग्रास्वाद नहीं लेती, अपनी ही वृत्ति का आरबाद लेशी है। स्वासी या स्वासिनत्ती की
वृत्ति तो उद्दोधक या विभावन मात्र है । हेतु है। इस प्रकार केशवदास ने ताटयप्रधाह
कैः विभावन व्यापार को श्रव्य में ही नहीं प्रत्यक्ष जीवन में भी चरितार्थ कर दिया
है । प्रत्यक्ष जीवन की अनुभूति में केशवदास भी रसात्मक बोच की एक स्थिति का
पंकेत दें गए हैं। आचार्य रामचल्र शुक्ल ने ही आधुनिक समय में प्रत्यक्ष बोध की
रसात्मकता का उल्लेख नही किया है |
अव यह देखना है कि केशवदास ने शूंगार के भीवर ही सब रस दिखाए है
লী আপা লাজ স্যার प्रकाश की भाँति थे भी शझंगार को ही एक रस मानते हैं ।
यह धारणा तो भक्ति संप्रदाय के पूल में ही निहित है ! जहां राग, अनुराग प्रीतिभाव,
महाभाव तक जाने की स्थिति है । साहित्य में शंगार आदि रस माना ही जाता है ।
जब आदि या मूल में यह है तब साहित्य और भक्ति दोनों का योग ट्वकी इस धारणा
में होना असंभव नहीं । रही भोजराज की दूसरी धारणा-- रस से भाव को पहुँचना ।
रस चेतन्य की सहज या निरविकार स्थिति है । भाव बिक्रिया है। भक्त उस्त तरकार
स्थिति में--शाश्वत रूप की स्थिति में भगवान् को ---करेशवे' को ही मानता है । भक्त
की भक्ति तो विभक्ति होती है । उपास्य-उपासक को लेकर चलती है। इसरे बरग
रस उपास्थ में ही होता है । उसी रस की परिणति भक्त में होती है, बह भावात्मक
होती है। आवंदाश का प्रतिबिबंत या प्रतिफलन सदंश में शोता है । रस की सत्तास्मक
स्थिति का ही नाम भाव है | यह तो केबल रशिक प्रिया की ही चर्चा हई। कबि-
प्रिया और छंदमाला में भी बहुत सी ऐसी हीं बातें हैं । जो स्थिति केंशबदास की थी
कैसी ही स्थिति हिन्दी के उसरवर्गी बहुत से प्रमुख आखधारयों की है। पर हिस्दी के
इस आाचारयों का अनुशीलन करते की ओर कोई बढ़ता ही मेही । परद-पदार्थ लगे तब
तो बढ़े कोई ।
रही राजसात्मक स्थिति का या कानि #बप का विचार । गह না बिरोधी ही
भानते हैं कि ने कत्रि थे जीर कविता के लिए काह्यशास्त्र का विवेशन आधार
बनाकर चले थे। इस्होंन उदाहरणों का अनुगमन या झनुबदन यही किया है ।
रीतियुग या স্ুশাহ युग में तीन प्रकार के कवि दिखते हैं जिनं मैने रोतिबद्ध,
रोतिमुक्त और शीतिसिद्ध कहा है। कुछ लोग यह आपत्ति करते हैं कि रीतियुग को
खुगार युग कहत पर भी जब रीति के बिता काम नहीं चलता तब शीतियुग के शांति
शब्द की साथकता अपने आप स्वष्ट हो जाती है | वर बात पैसा नहीं है। मत स
शब्द का ग्रहण दो प्रयोजनों से किया है | एक तो आचागे शुक्ल के प्रति श्रद्धा से
के कारण उनने शय शा मयय नियाजन क्र टिया। दुसर हिसी याता निए
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