स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी प्रबन्धकाव्य | Savatnurtar Hindi Prabhandkavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका/७ छहढ हो गयी हैं। कवि-सम्प्रदाय में वे परम्परा से चली श्रा रही हैं । असत्य होने पर भी उनमें किसी ने अ्रविश्वास प्रगट नहीं किया है। आकाश और पाप में कृप्णवर्णता, यण, हास ग्रौर कीति मे गुभ्रवरंता, क्रोध प्रौर ब्रनुरागमें र्विशंता, वेत श्रीर्‌ नीत कमन का नदी समुद्रादि में अस्तित्व, समस्त भुवन- वर्तीं जलाणयों मे कलहंस किवा चक्रवाक आदि का अ्रवस्थान, चकोर पक्षी के द्वारा प्ंगार-मक्षणा, वर्षाकाल में हंसों का मानसरोवर के प्रति प्रस्थयन, रमणियों के पाद-रहार से श्रशोक का कुपुमित होता ग्रौर उनके मुखोच्छिप्ट मद से बकुल का विकसित होता, युवक और युवती के श्रो में मुक्ताहार, वियोग में सन्ताप से हृदय का विदीर्णा हो जाना, कामदेव की प्रत्यंचा के रूप में भ्रमर-पंक्ति, काम क घनुप श्रौर बाण के हूप में पुष्प, काम-बाण और नारी-कटाक्ष से टवा प्रेमियों के हृदय का विदीण होना, दिन में कमल का खिलना, रात में कुमुद का विकसित होना, मेघनर्जत के समय मयूरों का नाच उठना, अ्रशोक में फल का प्रभाव, वसन्‍्त में मालती का न छिलना, चन्दन में एल ग्रौर फल का न होना, कोल, कमठ प्रौर शेप का पृथ्वीधारण, हंस का क्षीर-नीर विवेक, शिव के भाल पर द्वितीया के चन्द्रमा की स्थिति, रात्रि में चकवा-चकवी का विथोग, चन्द्रमा का गशलांछन और कामदेव का मकरकेतन नाम, विप्णु का क्षीरसागर-शयन परादि अ्रनेक बातें कवि-समय के नाम से प्रसिद्ध ই বা তন पर सर्वसम्मत्ति की मुद्रा लगी हुई है। इसीलिए ये काव्य-परम्परा के रूप में प्रचलित हैं तथा महाकवियों तक ने इनको काव्य में स्थान दिया है । राजशेखर ने काध्य- मीमांसा में कवि-समयों पर प्रच्छ प्रकाष ভালা है। वे कहते हैं “शास्त्र भौर लोक से वहिभूं त, केवल कवि-परम्परा में प्रचलित जिस भ्र्थ का कविजन उल्तेगख ^ है--वह्‌ कवि-समय द ।२” दसस कवियों का उपकार होता है, तथा यह काव्य-मार्ग का प्रदर्णक है प्रतएव सदोप हेति हुए भी सभी कवियों ने इसका उपयोग किया है । वर्ण्य विपय्र को रोचक और दृदयग्राही बनाने के लिए कवि- समयों का उपयोग किया जाता है । कवि-मम्प्रदाय में परम्परा से प्रचलित बातों का ही कविन्समयों में वगान हुम्ना है। श्रतएव ये वास्तविक प्रर्थ में काव्य-परम्परा से अन्तर्गत हैं। হাসিল ने इसके तीन श्राधार बतनलाए हैं --(१) शास्त्र से बहिभू त होना २. साहित्य दर्षण। ७1२३-१४-२५ पृ० ६२६, व्यास्याकार डा० सत्यवत सिह। २. “प्रशास्प्रीयम्‌ लोकिक च परम्परायात॑ं यमसमृपनियम्थन्ति कवय: स कवि- समय । राजशेपरः फाव्यसोमांसा प्रध्यायथ, १४ (प्रनुवादव, के दारनाथ दर्मासार स्वत, पृ० १६०)




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