भूदान यज्ञ | Bhoodan yagya
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
561
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बावा राघवदास का पृण्य स्मरण
कपिलद्त अवस्थी
सन् १९५५ की प्व है ! उन दिनों विनोवाजौ दास रेरिव भूदान-यक् खान्दोलन अपनी श्र्र्टता टी पराका्टा पर था । जिर देपो
भूदान, भ्रामदान की ही चचां होदी थी । १८ अतट १९५१ से आदाये विनोवा भागे भूदान का सन्देश लेकर भारतीय गाँवों ॐ |
प्रामस्वराज्य की स्थापना का सफलउम प्रयास करते रहे दें। ग्रामशब्य में से “गा” याली गये तथा गरीबी को निकाछ লা
रामराज्य की स्थापना फे लिये उत्तर प्रदेश के इर गाँव में पहुँचे । बादा रापवदास से सादा उत्तर भारत परिचित हो गया या তি न
भारतीय मानव फा सुर्य ध्येय ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना है। इसके समस्त सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिर कार्या फा संयाजन शरी
भावना की दृष्टि से छोग चला आया दे, उसके कार्यों में समस्त सानयों वी सेवा एक झावश्यक अंग रही है। अ्रध्यात्म-वत्त्ववेत्ता 1
सौमाग्य जिन्हे प्राप्त हुआ है, उनके ऊपर सर्वप्रथम करुणा से ओठप्रोत उनका यरददस्त ही रहा होगा । वदं इतनी আল मीया ८4 ते
एद वार् भी उनके पास पहुँचा, उनका दी दोकर आया। अज्ञनवी कभी यद् मदसूस ही नहीं कर पाता रि मैं वाया से पदली कः र र हे ष
को स्मएण-दाफि इवनी तीद्र थी कि चादे जहाँ आप उनसे मिले हों, घह तुरन्त मिलते दी कह देते ये कि धार तो शुक व द पा
নানা राघवदासजी का जन्म दिसम्बर, सन् १८९६ में महाराष्ट्र में बचपन
ष्य न् १८९६ में महाराष्ट्र में हुआ घा । इनका बचपन का
माम राघवेल्द धा \ राषयेन्र
एसे महापुस्पो मे थे, जिनका सारा जीवन जनता के लिये ही था। इनको न कोई
निजी स्वायं ही धा भौर न खहम् भाव ही ; वैसे तो हर मनुष्य को दूसरे के दुख में दुखी तथा दूसरे के सुख
में सुज़ी होता ही चाहिए । यह केवल सत्पुरषो की ही पहचान हैं, मानव के अन्तनिहित मानवता की परीक्षा
तथा पहचान है! परन्तु राघवेन्द्र इससे भी अधिक और आगे थे, वे दूसरे के दुख से केवल दुसी ही नहीं होते
ये, बल्कि दूसरों के पापों से अपने को वापी मानते थे बौर उसके प्रायश्चित्त के लिये
है और उसे भुगतने के लिये सदव तत्पर रहवे
इसलिए अनन्त महाप्रमु ने इनका नाम “राघवदास' रखा और
दुसरे के पाप को अपने सिर ओढने वाले खुद को ही सजा देते
है। इनमें भी यह खूबी असीम मात्रा में थी,
सर्वेसाधारण ने उन्हें “बाबा राघवदास” ही जाना 1
परिवार के सदस्यों को एुक के बाद एक तात्कालिक दुर्घटनाओं ने इनफ़ों सांसा-
रकता से विरदत कर दिपा और जब यह महाराष्ट्र से अतस्त की लोन में चल पड़े,
तो पहछे सीधे रैल द्वारा प्रयागराज आये । रेल पर सफर एरते हुए उनका एक पंडाजी
ই साय हो शया 1 हिन्दी यह जानते न थे, इसलिए हिन्दी भाषी प्राग्त भे उनके
लपे एक विकट समरयामा खड़ी हुई। इनकी अंटी में रेदल तीन साने पंसे थे ४
रायवैद्ध ने भांव-भगिमा से अपनों भूण छगने की बात बतायी ॥ उस पण्डे ने हूवाई
की दूर्टान से पूडियाँ दिरूुषायी ५ इसके चहले कभी भी अस्वच्छ भोजन इन्होने किया
महीं था, इसलिए भूल रहते हए भौ इन्कार कर दिया 1 হলকী छूगा था कि किसी
हरिजत की दृवध्त है। दस अधाग के पण्डे तो प्रसिद है ही। उन्होंने डांडना शुरू
कर दिया। अन्दतोपत्वा घर्माधर्म का विचार (किये बिना भोजत कर हो छियाह?
श्वर मनोदशा पर दुरो प्रतिक्रिया हुई और फोई ३५ শিলহ জার জ হী মী [
অই ने इसकी फुठीनठा और शालो-
महा देख बर अपने दोस्त के ঘা তন
सेर पदाना शुर किमा + नङ परिचय
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लाइब्रेरिपत
से हो गया। द जकर दुन हुई पुस्तकें बड़ा गाँव है।
भूदान-यज्न अम्दोलन में वह तत-मत-धन से
कूद पड़े और अम्तिम समय तह भूमि-
होदता पिटाने के प्रयाक्ष में लगे रहे । वह
कहते थे कि गाँव का राजा गाँव का किसान
बते । उसकी अपती आदद्यकंदाओं की
पूति स्वये কই?)
बाया राघवदास स्वयं तो कुछ नहीं,
पर स्थाओं के सपूहयथे। गोरखपुर का
दुष्टाश्वम उनकी सर्वोत्तम देत है + वैसे तो
ज़ितमी भी जन-संह्याएँ आजतक यहाँ
খনবী &, उतके मूछ में बाबाका हाथ
হা
जनशक्ति के संगठक बावाजी
गोरखपुर से वहरगंज रो जाने घाली पवशी सडक के किनारे गयहा एक बहुत
इस गाँव से बादा राधवदातजी का घनिष्ड सम्पर्क चा। सन् १९३६
के जून में किसो कार्य से बाबानों गगहा बारे ॥ प्रामवास्तियों ते गौव के सम्बन्ध मं
य्वद्ध हो जाते ये।
ক্যারি জা भन्टे-यत्े हिन्दी नोट्स लेते
थै। एक दित यहीं प्र राजवि टण्डवजी
से भेद दौ मपो] रण्डनजी ने अध्ययत की
सातत्यता देख कर इनको गादीजी के
वियारो से जवगत कराया और सत्ताद्वित्य
बड़ते भी प्रेरणा दी 1
आरत दो आजादी के लिए महात्मा
माधो ने जब देधा के तवयुत्रतरों का আন্্াল
किया, तो बाबा राषवदाशस अपने को रोक
मे सके। माघी से मारत वी स्वतत्रता के
लिये प्रयास विया, अपनी स्वयं को आजादी
के लिए भो সমল কিযা। इसीलिए वह
राष्ट्र पुष्प होते हुए भी झूठ महांपुर्ष थे ।
- बाबा सध्यवदास को सस्त विनोद को ही
छरह गाधीजी *आदक्ष सत्याप्रहो' वहते ये1
दादा राघददासजों चाहते थे कि
शादों में हर ब्यक्तित के খা भूमि
तथा जोीडिका के साघत रहें ओर इसके
लिए झाचार्य विनोवाजी द्वारा संबालित
দ্ধ
चर्चा चली $ छोषों ने बादाजी को अवगत कराया कि वहाँ बांब-निर्माण से हजारों
एकड़ जनीन यच सकती है, [जिससे हजारों सन अन्न की पैशाशार बड़ जायगी।
शयानो ने गाँव वालों को इस अनुभूत आवश्यकता को समझ लिया और बहों घाषणा
कर दो कि नौ दित में यह बघ निर्मित हो जायरा | লীলা ते कार्य असम्भव
सम्तशा । बाबाजों से इुछ लोगों ने इस प्रकार रावत ने लेने का आप्रह किया।
वादी बरत चे चुके थ । बाबाजों ने अवने दत रो घोणा समप के पावा में भो करा
दी । इसरे दिल प्रातः बाँध को पाई हो दयो भोर डा बेल पडने लगी । बाबा ने जाँचो-
काबड़ा लेकर निदो डालने का षयं शुरू रूर दिया, मह् सतार डिजलो की भाँति
वो ने पोच गया 1 सभो छोय সাহার को आलि फावडा-दवो तेकर दू षडे
हुजाएों को संद्या में लोप फिट्टी फेंकने लगे॥ १२०० आदमी प्रति दिन सुबह से
दाप तरू वाजा-गाजा के साथ नै दिन लगातार काम करते रहे । मौलौ चम्बा, एर्
फोट चौडा मौर ६ फीट ऊंचा वांघ बत कर वैषा हो षप ॥ बनो जे इस बाँध
का निर्माण करा कर जनता को छिरी शक्ति का आाभात करा दिया तथा उनमें विश्वास
ইহা करा दिया कि जरदकित के सगठन से महात् से महार् कार्य हो सकता है | इससे
ভাবী में बड़ा विश्वास वडा हमा + कालोके एह বিভা में हस बाय रा उल्लेख
करते हुए पत्रों में लिखा पा कि मोवर्वत के ह८ण का मह रूप है?
सर्वाय भाष, देवप, देवरिया, --रामबचन सिंह
अवश्य रहा है, किए भी हिन्दो-अगर्, हे
जरोडार, श्राइतिक विक्त, द|
प्रामोचोग, मुदान-यज्ञ আন্হী ক;
स्मारक विधि, समाज-पुपार, रेल
मोटर यथौ जान् उनको मनुपम
को कमो भूल ही नहीं सकता । बहुई
हक उत्तर प्रदेश माधो-प्मारक निश
संचारक पद पर रहे हैं। यहीं से
जौबन में एक नया मोह गया শীত
कूछ छोड कए अशग्ड भूरशात-पदयातरा
हिए तिबछ पड़े । उत्तर प्रदेश रो १
यात्रा समाप्त करके मध्यप्रदेश को ;.
यात्रा करते हुए खिबनों में १५ |
१९५८ को बाबा राषवद्ास परलोकवर
हुए। उतके बरहज-आश्रम का परिशा
विभिन्न श्रद्मार के आध्यात्मिक षार
का ए% विशाल प्षमूह् है 1 शिक्षिद 6९
जधिक्षित पुसो, भरी तपा निर्न
और प्रजा सभी उनहों कृपा के पात्र थे।
उत्तर অইহা দ हम लोग |
सरह ईसा भसोह की जपत्ती ६५
दिसम्बर कौ 'कुण्ड-रोगी-सेडा दिवए
के खूप मे मनाने, षयोक्षिमा
हो हुष्टरोवियों को अपताने বাটি
~ महएमा चे। उण्ोका मनु रण करन
सक्ते धवा साध्रवरासनो कौ जयन्तौ
से लेकर पुण्यतिथि ( १२ दिसम्बर!
से १५ जनवरों ) तक छुष्ट सेवा
का कायं मूर्तः परिया लाय)
स्तन दित सनो जोग पुष्ट रोगौ
सुस्वास्म्य की मंगल पापना कर्।|
इससे उन रोगियों को यदा षन,
দিলিগা। स्वास्स्य-युचार भें भी दतः
सहानुभूति से सहायता मिल जाती,
है। १५ जनवरी को बाबा राघवदार्स
की पुष्यठियि गा रही है। उत्तर
अदेश के साथ-साथ सारे भारत में
यह कुष्ट-रोगी-सेदा विश्रस सताया
जाय, ऐसी हमारी आता है।
ऐसे महापुरुष का स्मरण करने है हाय
खपनो नामा को उत्तमा भत दोना
है। जो साइठ ऐवे महापुरुषों में होती है'
অহী তাত ইস অহন সা হী सहती है।
इपकी प्रेरणा ऐसे पवित्र दित पर मे
हमें देते है । ०
शूदान-्यज्ञ, शुक्रवार, १ै३े ज्नपरी, ६१
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