पल्लव | Pallav

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Pallav by श्री सुमित्रानंदन पन्त - Sri Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ३ ) ऐश्वर्य्यों में लहलहा उठा | राजा महाराजाओं ने स्वयं अपने हाथों से सज्ञीत, शिल्प, चित्र तथा काव्य-कला के मूलों को सींचा, कलाविदों को तरह तरह से प्रोत्ताहित किया । सङ्गीत की श्राकाश-लता प्रनन्त-भङ्कारो मे खिल खिल कर समस्त वाय-मरडल में छा गई, मृग चरना भून गये, मृगराज उन पर दूटना। तानसेन की सुधा-सिश्चित राग-रागिनियाँ--किरई कहीं शेषनाग सुन ले तो उसके सिर पर रबखे हुए घरा मेरु डाँवाडोल हो जाये, इस भय से विधाता ने उसे कान नहीं दिये--अ्रभी तक हमारे वसन्तोत्सव में कोकिलाओं के उर से मधुसवण करती हैं। शिल्प तथा चित्रकलाओं की पावस-हरीतिमा ने सवत्र भीतर-बाहर राजप्रासादों को लपेट लिया | चतुर चित्रकारों ने अपने चित्रों में भावों की सूक्ष््तमा और सुकुमारता, सुरों की सजघज तथा सम्पूणता, जान पड़ता है, अपनी अनिमेष-चितवन की अचझ्ल-बरुनियों, अपने भाव-मुग्ध हृदय के तन्मय रोओं से चित्रित की | शाहज़ादा दारा का अलबम? चित्रकारी के चमत्कार की चकाचौंध है | शिव्पकला के अनेक शतदल दिल्‍ली, लखनऊ, आगरा आदि शहरों में अपनी सम्पूणता तथा उत्कष में अमर और अम्न्नान खड़े हैं; ताजमइल में मानो शिव्पक्रला ही गला कर ढाल दी ग देव, बिहारी, केशव आदि कवियों के अनिन्‍्द्र-पुष्पोद्यान अभी तक अपनी अमन्द-सौरस तथा अनन्त मधु से राशि राशि भरो को मुग्ध कर रहे हैं;--यहाँ कूल, केलि, कछार, कुञ्जो मे, सवत्र श्रघुस-उसन्त शोभित है | वीचों बीच बहती हुई नीली यमुना में, उसकी फेनोज्ज्वल चश्वल तरज्जों सी, असंख्य सुकुमारियोँ श्याम के अनुराग में टूब रही हैं। वहाँ बिजली छिपे छिपे अभितधार करती, भोरे सन्देश पहुँचाते, चाँद चिनगारियाँ बरसाता है | वहाँ छुद्दों ऋतुएं कल्पना के वहुरज्ञी-पद्धों में उड़कर, स्वग की अप्सराशञं की तरह, उस नन्दन-वन के चारों ओर अनवरत परिक्रश कर रही हैं। उस “चन्द्रिकाधोतहम्था वसतिरलका? के आस-पास “आनन-आोप-उजास?? से नित प्रति पूनो द्यी रहती है । चपला की चञ्चल-डरियों में पैग भर्ते हुए नये बादलों के हिडोरे पर भूलती हुई इन्द्र-घनुषी सुकुमारय मरी की समक ओर घटा की घमक में हिंडोरे की रमक मिला रही हैं। वहाँ सौन्दर्य अपनी ही सुकुमारता में अन्तर्धान हो रहा, समस्त नक्षत्र-मश्डल उसके श्री-चरणों पर निछावर हो नखावलि बंन गया, अलझ्डारों की कनक . ने देह-वीणा से




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