सर्वोदय का इतिहास और शास्त्र | Sarvoday Ka Itihas Aur Shastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ रफ्किन के निवन्ध $ सस्सान का सूल ৭৩ मत प्रकट नहीं किया जा सझता। इसलिए मनुप्यों के दित-संबंध परस्पर विरोधी हो, तो भी इससे यह नही सिद्ध होता कि काल- स्थिति के अनुसार उनके वीच अखंड शत्रुता या सघपे चलता रहे, क्योंकि केवल स्वार्थ ही मनुष्य के के की एकमात्र प्रेरक शक्ति नही है । मलुप्य जो काम करता ह, उसके मूल मं अनेकानेक उद्देश्य आर भाव हुआ करते हैं । इस कारण किसी विशेष वतीव का स्वयं उस पर या अन्य लोगो पर अतिम परिणाम क्या होगा, यह नहीं कहा जा सकता। फिर भी प्रेय ओर प्रेय. न्याय और अन्याय के अतर को जानना ह्रणक के लिए संभव ह । इसे अधिकतर लोग समझते भी है। अच्छी वातो का नतोजा अच्छा ही निकलेगा, यह जानने की चुद्धि मनुप्ण सें अवश्य ह। अतः यह मानकर कि सद्भावना के अभाव में डचित व न्याव ঘৃ स्यवदार श्चसंभव गा, एक-दूसरे के प्रति सद्भाव रखना मनुष्य फा कतव्य टो जाता द । मनुप्य के खाय सखद्भावना से प्रेरित शकर घतीव फिया जाय तो उखकी आत्मशक्ति जाग्रत होती £ और वह अन- पेक्षित साटस तथा विलक्षण कार्य-क्षमता दिखाता है। स्वार्थ की हृष्टि से विचार फरने पर भी घुद्धिमानों इसीमे हूं कि मनुष्य, मनुप्य के साथ स्नेट फा बतोव कर । केवल स्वार्थी बनकर सद्भावना का प्रद- शन किया गया तो विपरीत परिणाम होगा ओर निराया की सावना पथिक रहेगी या उसका लेना अवस्वंभावी दी ह! जाय হিল্লা লান- फर अपना फाम फरने लग जायें कि व्यवस्थित एवं न्‍्यायपूरो सद- व्यवशार के मूल में सदभाव फी ही आवश्यकता होतो है, तो उनऊझा रयाय निःसन्देट पूरा होगा; लेकिन यह जच्छी तरह समझ लेना चाएिए फि मूल में सवा की प्रेरणा न रहे।




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