जैन साहित्य में कृष्ण | Jain Sahitya Mein Krisna

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Jain Sahitya Mein Krisna by महावीर कोटिया - Mahavir Kotiya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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षसं प्रकारे कृष्ण का तीर्थंकर अरिष्टनेमि की धमं सभाभो मे उपस्थित होना, “उनसे घामिक चर्चा करना तथा शका-समाधानत् करना बहुत सहज रूप से जैन परम्परागत साहित्य मे वणित है । कृष्ण तथा अरिष्टनेमि के इस पारस्परिक सम्बन्ध के बारे मे महाभारत तथा समस्त वैष्णव परम्परागत साहित्य पूर्णत मौन है । यह एक अदभुत स्थिति है कि एक तरफ तो जैंन-परम्परागत साहित्य की व्सुदीर्ध कालावधि मे कृष्ण तथा अरिष्टनेमि के इन सम्बन्धों का वर्णन करनेवाली अनेक कृतियाँ उपलब्ध हैं, वही समकालीन वंष्णब परम्परागत साहित्य मे इस सम्बन्ध मे किसी भी कृति मे कोई उल्लेख तक नहीं है “छान्दोग्य उपनिषद्‌ मे घोर आगिरस का उपदेश उपनिषदो मे पर्याप्त प्राचीन मानी जानेवाली कृति छान्‍्दोग्य मे देवकी-पुत्र कृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आगिरस का उल्लेख ই । इस उपनिषद्‌ के अध्याय तीन, खण्ड १७ में आत्म-यज्ञोपासना का वर्णन है। इस यज्ञ की दक्षिणा के रूप मे तप, दान, आजव (सरलता), अहिंसा और सत्य वचन का उल्लेख है। यह यज्ञ- दर्शन ऋषि घोर आगिरस मे देवकीपुत्र कृष्ण को सुताया । इस उपदेश को सुनकर कष्ण की अम्य विद्यामो के प्रति तुष्णा नहीं रही अर्थात्‌ उनकी जिज्ञासा शान्त हो गयी और उन्हें कुछ जानना शेष नही रहा । घोर आगिरस ने कृष्ण को यह भी उपदेश दिया कि अन्तकाल मे उसे तीन मन्त्रो का जप करना बाहिए-(१) तू क्षित (गक्षय) है, (२) तू मच्युत (अविनाशी) है तथा (३) तू अति सुक्षम प्राण है छान्दोग्य के इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आगिरसने कृष्ण को आत्मवादी विचारधारा का उपदेश दिया। हस मात्मयज्ञ के उपकरण के रूप मे तप, दान, आजव, अहिंसा भौर सत्यवचन का उल्लेख है। स्पष्ट ही यह विचारधारा बेदिक -यज्ञोपासना से भिन्नं प्रकारकी थी। वैदिक परम्परागत यशोपासना के बारे मे यह मान्य तथ्य है कि यह हिंसा व कर्मकाण्ड प्रधान थी | आत्मयज्ञ की इस धारणा ঈ तप, त्याग, हृदय की सरलता, सत्यवचन व अहिंसा आदि श्रेष्ठ गुणों के अग्री- कार द्वारा आत्मशुद्धि मुख्य बात थी। इस प्रकार आगिरस द्वारा उपदेशित मात्म यशोपासना अहिंसा प्रधान थी तथा तप-त्याग आदि को उसमे महृत्त्व दिया गया था । जैन धर्म व दर्शेत की समस्त परम्परा भी इन्ही विचारों पर आधारित है। आत्मा की श्रेष्ठता यहाँ मान्य है। अहिला को यह परम्परा परम धर्म मानती है। तप, त्याथ, ऋजुता और सत्य का आचरण इस धर्म के लक्षण हैं। इस प्रकार घोर आपिरस द्वारा देवकीपुत्र कृष्ण को दिया गया उपदेश जहाँ जैन-परम्परा व , विचारधारा के निकट है, वही बेदिक परम्परा तथा विचा रधारा के विपरीत है। ८ / ज़ेन साहित्य में कृष्ण




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