ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर | Atihashik Kal Ke Teen Tirthkar Part- Ii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विधान सभा से उन्हीं दिनों ग्रवकाश प्राप्त श्री गजर्सिह, राठौड़, जैन-न्याय- व्याकरण तीथ॑ को आचार्यश्री की सेवा में दर्शनार्थ लाये | बातचीत के पश्चात आचायेश्री द्वारा रचित जैन इतिहास की काव्य कृति--“आचाये चरितावली” सम्पादनाथे एवं टंकणार्थ इतिहास-समिति ने श्री राठौड़ को दी । इसके सम्पादन एवं इतिहास विषयक पारस्परिक बातचीत से प्रमुदित हो आचार्यश्री ने फरमाया--इसका सम्पादन आपने बहुत शी क्र और समुचित रूप से सम्पन्न कर दिया, गजसा ! हमारा एक बहुत बड़ा कार्य पाँच-छ: वर्षों से रुका सा पड़ा है आप इसे गति देने में सहयोग दीजिये ।” जून, १६७० में श्री राठौड़ ने इतिहास के सम्पादन का कार्य सम्भाला ) समवायांग, आचारांग, विवाह प्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों, आवश्यक, चउवनन्‍्न महा- पुरिस चरियं, वसुदेव हिण्डी, तिलोय पण्णत्ती, सत्तरिसय द्वार, पठम चरिय॑ गच्छाचार पहइण्णय, अभिधान राजेन्द्र (७ भाग) पषट्‌ खण्डागम, धवला जय धवला आदि प्राकृत ग्रन्थों, सर मोन्योर की मोन्योर-मोन्योर संस्कृत टू इंग्लिश डिक्शनेरी श्रादि श्रांग्ल भाषा के म्रन्थो, त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, हरिवंश पुराण, भ्रादि पुराण, महापुराण, वेदव्यास के सभी पुराणों के साथ-साथ हरिवंश पुराण भ्रादि संस्कृत ग्रन्थों और पुष्पदन्त के महापुराण आदि अपन्रंश के ग्रन्थों का आलोडन किया गया और पयु षरा पवे से पूर्व ही “जेन धर्म का मौलिक इतिहास” पहला भाग की पाण्डुलिपि का चतुर्थाश और मेड़ता चातुर्मासा- वासावधि के समाप्त होते-होते पाण्डुलिपि का शेष अन्तिम अ्रंश भी प्रेस में दे दिया गया । प्रथम भाग के पूर्ण होते ही मेडता धमं स्थानक में इतिहास के द्वितीय भाग का आ्रालेखन भी प्रारम्भ कर दिया गया। जैन धर्म के इतिहास के ग्रभाव की चतुर्थाश पूति से आचार्यश्री को बड़ा प्रमोद हुआ, जैन समाज में हे की लहर तरंगित हो उठी और इतिहास-समिति का उत्साह शतगुरित हो अभिवुद्ध हुआ | प्रथम भाग के प्रकाशन के साथ-साथ ही इतिहास-समित्ति ते इसी के अन्तिम अंश को “ऐतिहासिक काल के तीन तीर्थंकर” नाम से एक पृथक ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित करवाया । सन्‌ १६७१ के वर्षावास काल में ये दोनों ग्रन्थ मुद्रित हो सर्वेतः सुन्दर रूप लिये समाज, इतिहासज्ञों और इतिहास प्रेमियों के करकमलों में पहुँचे । सन्‍्तों, सतियों, श्रावकों, श्राविकाओं श्वेताम्बर दिगम्बर जेन-अजेन सभी परम्पराओं के विद्वानों ने भावपूर्ण शब्दों में मुक्तकण्ठ से इस ऐतिहासिक कृति की और आचाय॑ंश्री की भूरि-भूरि प्रशंसा की । श्राचार्यश्री की लेखनी मे एक ऐसा अद॒भुत्‌ चमत्कार है कि आपने इति- हास जैसे शुष्क-ती रस विषय को ऐसा सरस-रोचक एवं सम्मोहक बना दिया है कि सहस्रों श्रद्धालु और सैकड़ों स्वाध्यायी प्रतिदिन इसका पारायर करते हैं । सन १६९७४ में आचार्यश्री ने “जैन घर्मं का मौलिक इतिहास” दूसरा भाग भी पूर्ण कर दिया | १६७४ में इतिहास-समिति ने इसे प्रकाशित किया | इसका




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