प्रमुख जैनाचार्यों का संस्कृत काव्यशास्त्र में योगदान | Pramukh Jainacharyo Ka Sanskrit Kavyasastra Mein Yogdan

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Pramukh Jainacharyo Ka Sanskrit Kavyasastra Mein Yogdan by रश्मि पन्त - Rashmi Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वाग्भटालंकार के व्याख्याढार श्री सिंहदेवकति ने भी यही निर्देश किया है। इनके अतिरिक्‍त व्याख्याकार जिनवर्धनतरि एवं ब्षेमहेसगाणि ने भी इसकी पुष्टि की है। प्रभावकचारित में कई स्थलों पर वाहड के स्थान पर धाहड का प्रयोग प्राप्त होता है“ तथा ज्ञात होता है कि वाग्मट प्रथम धनवान तथा उच्चकोटि के श्रावक ये। एक बार इन्होंनि स्वर्ध द्वारा किती प्रशंसनीय कार्य मे धन - व्यय करने हेतु गहू से आज्ञा माँगी। ग॒रूने जिनमंदिर बनवाने में व्यय किये ग्ये धन को सफ्लीम्ृत बतलाया था, तदनंतर गुरू की आज्ञानुतार वाग्भट ने एक भव्य जिनालय का निर्माण कराया था जिसमें विराजमान वर्धमान त्वामी कौ द प्रतिमा अह्मृत शोभा ते युक्त थी, जिसके तेज ते चन्द्रकान्त एं सूर्यकान्त मपिकौ प्रभा फीकी पड़ गई- थी। वाग्भटालंकार” के उदाहरणों में क्दिव के पत्र अनहिलपट्टन के चालक्यर्वशी राजा जयर्चिंह की स्तुति पायी जाती है।' इतते यह निष्चिच्त हो । इदानीं गन्थकारः इदमलंका ःरर्क्तृत्वरव्यापनाय वागमटा अिधस्य महाक्वेर्गहामा त्यस्य तन्नाम गा थयैक्या निदक्ष्यति।* वाग्मटालंकार, पृ 95 2. अथातितो थाहडी नाम धनवान धार्मिकाजफी: प्रभावकचारित - वा दिदेवप्नरि्व्ति, 67 ॐ प्रभावकर्वारित - वादिदेवतारियारित, 67-70 धक) जगदात्मकौ रतिश्च जनयन्नुददामधामदो :परिघः। जयति प्रतापपषा जयसिंह क्रमाप्रदधिनायः।। वाग्मटालकार ५-५5 अलहिल्लपाटकं पुरमवनिपति : कष्दिवन॒प सुन्‌ : 1 प्रीकलङ्रनाम्रधेयः करी च जगतीह रत्नानि।। লা০0 ५131 (ख> इन्द्रेष किं यदि स कर्षनरेन्द्रसनु :, एरावतेन किमहो यदि तद्दिपेन्द्र: दम्मो लिना प्यलमले यदि तत्प्त्ताप:, स्वर्गोडप्ययं ननम्॒धा पद कार লা नहा, ५.75




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