ज्ञानयोग | Gyanayog
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
342
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)माया ९
जाता है, “ हम जगत् के गुप्त रहस्य को क्यो नह जन परते
और इसका इस प्रकार निगूढ माव व्यञ्जक उतर प्राप्त होता हेः--
५ हम सब व्यर्थ जल्पना करते है, हम इन्द्रिय-सुख से परितृष्त होने
वाले और वासनापर है, अतएव इस सत्य को नीहाराबृत करके रखने
हैं”... नीहारेण प्रावृता जरुप्या चासुतुप उकथशासश्चरन्ति | ২
यहाँ पर माया शब्द का व्यवहार तो विछकुछ ही हुआ नहीं, किन्तु
इससे यही भाव प्रकट होता है कि हमारी अन्नता का जो कारण
निर्धारित हुआ है वह इस सत्य और हमारे बीच कुज्कटिका के
समान वर्तमान है | अब इसके बहुत समय के बाद, अपेक्षाकृत आधघु-
निक उपनिपदो मे माया शब्द का फिर आविमाव देखने मे आता है !
किन्तु इसी बीच मे इसका प्रमृत रूपान्तर हो चुका है; उस्के साथ
कई नये अथं संयोजित हो गये हे; नाना प्रकार को मतवाद प्रचारित
ओर पुनरुक्त इये है; ओौर अन्त मे माया विषयक धारणा एक स्थिर
रुप प्राप्त कर चुकी है | हम खेतास्वतर उपनिषद् मँ पट्ते है
८ मायान्तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनन्तु महेश्वर्म | “--माया को ही प्रकृति
समझो और मायी को महेश्वर जीनों | भगवान शंकराचार्य के पूर्वव्ती
दाशेनिक पण्डितों ने इसी माया शब्द का विभिन्न अर्थों में व्यवहार
किया है | माछम होता है, बौद्धो ने भी माया शाब्द या मायावाद को
कुछ रज्जित किया है। किन्तु बौद्धों ने इसको प्राय: विज्ञानवाद *
(পলা «मकान.
१ ऋग्वेद-टशम मण्डल, ८२ सूक्त, ऋक् ।
२ हमारी इन्िर्या से रादथ समस्त जगत हमारे मन की ही विभिन्न
अनुभूतिमात्र है, इसकी वास्तविक सत्ता नहीं है, इसी मत को विद्दानवाद या
106थ०॥8० कहते हैं ।
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