संस्कृत रूपकों में पूर्वरंग - विधान - एक समीक्षात्मक अध्ययन | Sanskrit Rupakon Men Purwarang - Vidhan - Ek Samikshatmak Adhyayan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
332
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साधारणीकृत रूप के सारे संसार के भावों का अनुकीर्तन रूप है। अनुकीर्तन का तात्पर्य
है शब्द द्वारा कथन क्योंकि बिना शब्दों के साधारणीकरण का व्यापार सम्भव नहीं है।
अत एवं अनुभावन नहीं अनुकीर्तन ही नाट्य है, इसी के समर्थक अभिनवगुप्त
भी हैं। ये अनुकीर्तन को नाट्य का रूप स्वीकार करते हैं, परन्तु अपने से पूर्व के
आचार्यों के केवल अनुकरण रूप समझने के विपक्ष में हैं।
इस सन्दर्भ में यह जिज्ञासा होती है कि यदि नाट्य सम्पूर्ण संसार के भावों का
अनुकीर्तन रूप है तो उसमें सारे संसार के भावों का अनुकीर्तन होना चाहिए। इस
विषय में आचार्य भरत का कथन है कि रूपक के दस भेदों को मिलाकर सम्मिलित
रूप से नाट्य कहा जाता है और उसमे संसार के सारे भावो का दर्शन हो जाता हैं
अथवा रूपक के अलग-अलग भेदौ को नास्य कहा जाय तो उसमें भी संसार् के भावों
का समावेश मिल सकता है। तात्पर्य यह है कि एक ही नाटक में भिन्न-भिन्न भावों का
समावेश पाया जाता है क्योकि नाटक में कही धर्म, क्रीडा, अर्थ, शप, कही युद्ध का
दृश्य दिखाया जाता है।'
यह नाट्य धर्म क्रीड़ा से युक्त होने के साथ-साथ नानाभावो से युक्त लोक
व्यवहार का अनुकरण कराने वाला है। यह त्रिलोक के भावों का अनुकरण है, इससे
अभिनव का आशय यह है कि नाटयावलोकन से प्रेक्षक का चित्त निर्मल होता है ओर
वह संस्कारों को ग्रहण करता है।
दशरूपककार आचार्य धनञ्जय ने नास्य की परिभाषा देते हुए
-अवस्थानुकृतिर्नार्यम् ” कहा अर्थात् अवस्था का अनुकरण ही नास्य हे। धनिक ने
इसकी व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा कि काव्योपनिबद्ध धीरोदात्तादि नायको के चतुर्विध
अभिनय के द्वारा अनेकानेक अवस्थाओं का अनुकरण इस प्रकार किया जाता है कि
४ क्वचिद्धर्मः क्वचित्क्रीडा क्वचिदर्थः क्वचिच्छमः।
` क्वचिद्धास्यं क्वचिदयुद्धं क्वचित्कामः क्वचिद्रधः)। (नास्यशाख १/१०८)
User Reviews
No Reviews | Add Yours...