125 हिन्दी निबंध | 125 Hindi Nibandha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रीष्म ऋतु को दोपहर ग्रीप्म ऋतु की दोपहर भगवान भास्कर के कोप का प्रचण्ड रूप है, प्राणिः मात्र मे उदासीनता भौर व्याकुलता की जनक है, आलर७, थकावट और अकर्म- ण्यता के सचार का स्रोत है, कीटाणुओं की मृत्यु का सन्देशवाहक है और फलों के लिए प्राणपोपक पीयूप है। ग्रीष्म वैसे ही जगती को संतप्त करती है, ऊपर से आ जाए उसकी दोपहर 1 एक करेला ओर ऊपर से नीम चढ़ा 1 भगवान भास्कर पृथ्वी के सिर पर अवस्थित होकर तीण किरणो से वसुधा को तपा रहे है ) असह्य तपन से वसुधा व्याकुल है, उसका हृदय फट रहा है, उसका सुदृढ़ तारकोलीम परिधान पिघल रहा है, नगे चरण कोई उसे स्पर्श तो करके देखे | लगता है सूर्य की किरणें नही, प्रसाद थी के शब्दों मे-- किरण नहीं, ये पावर के कण, जगतो-तल पर गिरते हैं। कृष्ट एकाकी नहीं आता। सूर्य की प्रचंड गर्मी से पवन भी गर्म हो गई! उसने अग्नि में धृत का काम किया। वह चलने लगी, वहने लगी । उसका वेगः बढ़ा | पवन का झोका लू में बदल गया। घूल उड़ने लगी | साँय-साँय कर वाता- वरेण अपनी व्याकुलता व्यक्त करने ल्गा। विरहिणी वसुधा विरह-वेदना में उच्छ्वासले रही है । प्रसाद का हृदय व्याकुलं हो उटा-- स्वेद धूर्लि-कण धूप-लपट के साय लिपटकर मिते ह । जिनके तार व्योम से ब्रेंघकर ज्वाला ताप उग्लते हैं ॥ शूल उडत प्रवल प्रभंजन' भो 'मात्तप-भीत विहंगम कुलं कय कन्दन' करट जब भास्कर से भयभीत हो सुरक्षा हेतु छाँह ढूंढने चला जाता है, शान्त हो जाता है, तो उमस उत्पन्न हो जाती है। प्राणियों की व्याकुलता बढ़ जाती है। विरह* बेदना से वसुधा संशाहीन हो जाती है और-- (७)




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