पतिव्रता | Pativrata

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Pativrata by योगेन्द्रनाथ वसु - Yogendranath Vasuश्री जनार्दन - Shri Janardan

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योगेन्द्रनाथ वसु - Yogendranath Vasu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ पृतित्रता । अच्छे भूषण-वसन से सुसज्ञित खुन्दर नोकर, किन्तु नये दामाव्‌ के साथ श्रये थे हाथ मे जिश्रूछ लिये नङ्क धड्ङ्क नन्दी । बरातियेों का भयङ्कर श्राकार श्रर अद्भुत भाव देख करः कनखल के रहने- वाले आर लोग भी भयभीत और चकित हुए। उन लोगों ने कहा, “महाराज ने यह केसा सम्बन्ध किया है? किन्तु जो उनमे समभदार थे, उन्होने सबका समझा दिया कि यह कुछ नई बात नहीं हे, पहाड़ी लोगां का रज्ज-रूप और भाव ही ऐसा होता है । वर का निश्चल भाव, सरल व्यवहार और सदा प्रसन्न मुख देख कर पुरवासियों के मन का क्ञोभ क्रमशः जाता रहा | राजा, रानी और पुरवासियों के मन का भाव ऐसा ही था । सती के मन का भाव कैसा था यह कहने की आवश्यकता नहीं । साधु-सन्यासियों के मुँह से जिनकी प्रशंसा खुनकर सती जिन्हें इश्देव समझ कर नित्य हृदय में पूजती थी, ञआआज वही उसके सामने पति के रूप में विराजमान हैं । सती के मन का भाव कया शब्दों के द्वारा समझाया जा सकता दे? चारों आँखे बराब८ होते ही सती ने सम्पूर्ण रूप से अपने के कैलासपति के चरणकमलों में अपित कर दिया। उनका वह चारुचन्द्रविनिन्‍्द्‌क मुँह, उनका वह रजत पहाड़ सा गोर शरीर, ऐराबत गजशुण्ड सा विशाल दीघं बाइ, किवाड़ के तख्तों की सी चाड़ी छाती, कमछ से भी केामल ओर न्द्र चरण सती के मन में विहरने छगे । सती ने भ्यानस्थ शङ्कर की रमणीय सूति से निवेदन किया--“नाथ ! आपदी सती के सर्वस्व है। आप ही के लिए सती का जन्म इुआ | हेश्वर मुझे आपकी सहधम्मिणी होने की योग्यता दे। मुझे वह ऐसा ज्ञान दे (के में आपके चरणो की भलीर्भाति सेवा कर सक | ११




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