तत्त्वार्थ सूत्र | Tatvarth Sutra

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Tatvarth Sutra  by श्रुतसागर जी मुनिराज - Shrutsagar ji Munirajसुदीप जैन - Sudeep Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सिद्ध होता है, सहजता को लिये हुये है। जबकि 'उमास्वाति' नाम कृत्रिमता को लिये हुये है। परम दिगम्बराचार्य गृद्धपिच्छ कुन्दकुन्दाचार्य के साक्षात्‌ शिष्य एवं 'तत्त्वार्थसूत्र' ' के कर्ता आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी स्वयं दिगम्बर जैन मूलसंघ में दीक्षित कुन्दकुन्दान्‍वय के निर्ग्रन्थ-श्रमण थे। इसप्रकार सुसिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता का नाम आचार्य गृद्धपिच्छ उमास्वामी था, और ये आचार्य कुन्दकुन्द के साक्षात्‌ शिष्य या अन्तेबासी थे। शिलालेखों तथा अन्य ऐतिहासिक एवं पुरातात्तविक साक्ष्यों में आचार्य कुन्दकुन्द के अनन्य-शिष्य के रूप मे आचार्यं उमास्वामी' का नाम भी आता है, जो कि गृद्धपिच्छ' अपरनाम से अधिक विख्यात हुये। आपकी कालजयी-कृति “तत्त्वार्थ' तत्त्वर्थसूत्र '. जिसका अपरनाम आजकल ' मोक्षशास्र भी प्रचलित है, की ख्याति जैन-वाङ््मय के प्रतिनिधि-ग्रन्थ के रूपः मे सर्वत्र व्याप्त है। दिगम्बर-परम्परा में इनका न आचार्य “उमास्वामी' ही है। किन्तु श्वेताम्बर-परम्परा मे इनके ग्रन्थ ' के भाष्यग्रन्थ तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के प्रणेता वाचक उम्ास्थाति” को मूलग्रन्थ का कर्त्ता सिद्ध करने की चेष्टा की गयी है। चकि दोनों नाम तत्वार्थसूत्र ग्र से सम्पृक्त हैं, अतः इसके बारे में भ्रम की स्थिति आसानी से बन गयी। जबकि वाकतैक उमास्वाति सूत्रकार आचार्य उमास्वामी ' से पर्याप्त परवतीं है^ किन्तु भ्रम कौ स्थिति क्रो दढ करने की भावना से एक सुनियोजित प्रचार किया गया कि 'वाचक उमास्वाति':ने ही मूल “तत्त्वार्थमृत्र' ग्रन्थ की रचना की, तथा उन्होंने ही 'तत्त्वार्थाधिगमभाष्य' नाम से स्वोपज्ञ-भाष्य का भी निर्माण किया। किन्तु यह सम्प्रदायगत-व्यामोहमात्र है, जिससे तथ्य की हानि ही हुई है। इसका स्पष्टीकरण निम्नानुसार है - 'तत्त्वार्थमृत्र' ग्रन्थ के कर्ता के रूप मरे उमास्वामी ' नाम शिलालेखो, वृत्तियों, टीकाओं एवं भाष्यग्रन्थो आदि मे अपेक्षाकृत कम प्रयुक्त हुआ है; जबकि ' गृद्धपिच्छ ऽ नाम अधिक प्रयुक्त हुआ है। जहा -जहं उमास्वामी ' नाम आया भी है, वहाँ अधिकांशत उसके विशेषण कं रूपः में 'गृद्धपिच्छ' नाम का भी प्रयोग मिलता है। इस बिन्दु पर सूक्ष्मता से विचार किया जाये, तो हम पाते हैं कि श्वेताम्बर-परम्परा में इनको ' गृद्धपिच्छ उमास्वामी ' की जगह 'वाचक उमास्वाति' अथवा 'आचार्य उमास्वाति' कहा गया है। इसके लिये 'तत्त्वार्थमृूत्र' की प्रशस्ति का एक पद्च, जो दोनों परम्पराओं में पाया जाता है, तुलनार्थ देखें -- दिगम्बर-परम्यरा - ततत्वार्थसुत्रकर्तरिं गृद्धपिच्छोपलक्षितम्‌। गणीदद्रसंजातसुमास्वामी -मुनीश्वरभ्‌॥ श्वेताम्बर परम्परा - तस्वार्थसुत्रकर्तरमुमास्वातिमुनीश्वरम्‌। श्रतकेवलिवेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम्‌॥ 0)




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