बीरबल साहनी | Birabal Sahani
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
133
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पारिवारिक पृष्ठभूमि 5
चोरी न चली जाएं जो उनकी अमूल्य निधि थी । अतः वे एक पेड़ पर चढ़
गए, पर गिरने के डर से आंखें भी बंद नहीं कीं । छात्र-जीवन के ऐसे दुखमय
दिनों के बाद वे बढ़ते बढ़ते लाहौर के शासकीय कालेज में रसायन शास्त्र के
प्रोफेसर के पद पर आसीन हो गएं । लाहौर तब तक परिवार का घर बन गया
था ओर भेरा गौण स्थान एर चला गया था । यद्यपि यह परिवार अब भी भरुची
अर्थात भेरा निवासी कहलाता था ।
प्रोफेसर रूचिराम साहनी ने उच्च शिक्षा के लिए अपने पांचों पुत्रों को इंग्लैंड
भेजा तथा स्वयं भी वहां गए । वे मैनचेस्टर गए और वहां कैम्ब्रिज के प्रोफेसर
अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा कोपेनहेगन के नाइल्सबोर के साथ रेडियो एक्टिविटी पर
अन्वेषण कार्य किया । प्रथम महायुद्ध आरंभ होने के समय वे जर्मनी में थे और
लड़ाई छिड़ने के केवल एक दिन पहले किसी तरह सीमा पार कर सुरक्षित स्थान
पर पहुंचने में सफल हुए । वास्तव में उनके पुत्र बीरबल साहनी की वैज्ञानिक
जिज्ञासा की प्रवृत्ति और चारित्रिक गठन का अधिकांश श्रेय उन्ही की पहल एवं
प्रेरणा, उत्साहवर्धन तथा दृढ़ता, परिश्रम और ईमानदारी को है । इसकी पुष्टि इस
बात से होती है कि प्रोफेसर बीरबल साहनी अपने अनुसंधान कार्य में कभी हार
नहीं मानते थे, बल्कि कठिन से कठिन समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए सदैव
तत्पर रहते थे | इस प्रकार, जीवन को एक बड़ी चुनौती के रूप में मानना चाहिए,
यही उनके कुटुंब का आदर्श वाक्य बन गया था ।
प्रोफेसर बीरबल साहनी स्वतंत्रता संग्राम के पक्के समर्थक थे । इसका कारण
भी संभवतया उनके पिता का प्रभाव ही था ! उनके पिता ने असहयोग आंदोलन
के दिनों, 1922 में अंग्रेज सरकार द्वारा प्रदान की गई अपनी पदवी अमृतसर के
जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार के विरोध में वापस कर दी थी यद्यपि उनको
धमकी दी गई कि पेंशन बंद कर दी जाएगी । रुचिराम साहनी का उत्तर था
कि वे परिणाम भोगने कौ तैयार है । पर उनके व्यक्तित्व ओर लोकप्रियता का
इतना जोर था कि अंग्रेज सरकार को उनकी पेंशन छूने की हिम्मत नहीं पड़ी
और वह अंत तक उन्हें मिलती रही ।
वे दिन उथल-पुथल के थे । स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम उत्कर्ष पर था।
देश के लक्ष्य, पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति में देशभक्ति की भावना से भरे सभी मनुष्य
किसी न किसी प्रकार से योगदान कर रहे थे । इस संक्रांति काल में उनके लाहौर
स्थित भवन में मेहमान के रूप में ठहरने वाले मोतीलाल नेहरू, गोखले, मदन मोहन
मालवीय, हकीम अजमलखां जैसे राजनीतिक व्यक्तियों का प्रमाव भी उनके राजनीतिक
संबंधों पर पड़ा । ब्रैडला हाल के समीप उनके मकान के स्थित होने का भी
उनके राजनीतिक झुकावों पर असर पड़ा क्योंकि ब्रैडला हाल पंजाब की राजनीतिक
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