जैन मित्र | Jain Mitra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
221
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१४ ]
इमयंती अम्बईसें बड़ी हो रही थी इतनेमें इक्छोता
বিহু बाबू- युवःवस्थामे १६ वर्षी आयुमे डवल
द बिमारीसे चल बसा तब हम सुवह ५
से ९ बजे तक मित्र' का कम करतेर उनके पास
ही थे व बाबू अंत तक सचेत थां ब उसकी स्मृतिमें
५०००) निकमे थे ओ कदम १५८००) करके उमर
नामका दि० जेन बोडिंज़ निर है जो १५-२०
बर्षेसे चाकू है। उस संकटके समय भी जनमित्र' एक
दिन भी बंद नहीं रखा था। इस समय हमारे यहां
(० परमेध्टोदासजी न्यायतीथे छलितिपुर का4 करते थे
जो १५ बर्ष सूरत रहे थे व आपने “जेनमित्र' की
महन सेबा शास्रोक्त लेख लिश्कर ही शी थी।
आठवी आपदि- दि जन प्रांतिक सभा यंबका
२१ वां अधिवेशन नांदग बमें त्र> जीवराज गौतम-
चन्द दोशीके सभापतित्वमें हुआ प्स र॒मय हम,
सेठ ताराचन्दजी, सेठ हीराचन्द नेमचन्द, त्द्यचारी जी,
सेठ चुप्तील ल हेमचन्द आदि कोई उर्पात्थित नही थे और
वहां नप्रे चुनावर्मे बढ़ा विरोध होनपर भी जनभित्रे
सम्पादक ज० भीवढयसादजीकों न रखकर प॑> थटी-
धरजी शस्ी सोढ पुरको 'जेनमित्र के सम्पादक नियुक्त
किमे उप समय बाबु म,णिकचन्दजी बेन/डा महामंत्री
श्रे। इस अधिवेशनके समाचार आये व भित्र छपे
व इसपर रथायी सभापति सेठ हीराचन्द नेमचन्द,
सेठ ताराचन्द्ञी फोषाध्यक्ष व हमने विचार विनीमय
व जांच पड़ताल की तो मालूम हुआ कि यह अधि-
वेशन ही नियम बिरुद्ध है अतः उसके हरताब भी
नहीं माने जा सकते न नई फमेटीको हम मान्य कर
सकते हैं |
इसके ब.व कई पत्र थ सोछीली८र नोटिश हमें
था० माणिकचन्दजी बेताडा द्वारा मिल्लें कि मित्रहे
सै १० बंदीधरजीको मन्थ करं ब चाज दे दँ आदि
स पर मने भी बराबर उत्तर दिया कि संप.दक
धदलनेका य प्रक शकका चुन. न करनेका प्रस्ताव
है हमें रवीकृत नहीं हैं। आप चाहें जो कर हें।
এ
^ 1 [ बर्ष ६१
इसके बाद समजौतेके लिये नयी पुरानी कमेटीकी
मीरिग भी सेट हीराषबन्द् नेमचन्दने दीरावागमे बुला
थी लेकिन कोई समजौता नहीं हुआ, न जैनमित्र
एक भी दिन बंद रहा। आज पं० बकीधरजी
सालापुर इस संसारम नहीं हैं. अतः हम इनके विषयसें
कुछ नहीं लिख सकते तो भी कहते हैं. कि यदि
जनमित्र सोपुर चखा गया होता तो क्या जाने
শিস क्या दशा होती। ( क्योंकि इनके द्वारा दो
पत्र निकलकर बन्द हो गये थे )
नाव आ. - श्री अ० सीतरपरस।दजी जेनमि-
न्रकी रूम्पाददीमे चार चाँद छा दिये थे, आपके
विम्द्धपे णक पण्डित पाटी व 'जेनगजटः हो गया
था कि आप तो धर्म विरुद्ध प्रचार करते हे लेकिन
श्री श्ञ्नचारीज्ञीने एक भी लेख धर्म विरुद्ध जनमित्रमे
नहीं लिया था तीमी महासभाने “जे नमित्र' का
बहि कार करनेका पस्ताव कर दिया था इससे
जनमित्र!' को विशेष बल मिला ओर ब्रहक भी
बढ़ गये थे। इसके ब द एक दिन बहुत करके खण्ड-
घासे अद्यचारीजीका पत्र आया कि में थक गग्ना हूं
अत: जे नमित्रके तथा स्याहद महाविद्यालयके अधि-
छाता पदसे स्वीफा इता हूं, अतः मित्रकी सम्पादकी
सम्हालें, हाँ मैं 'ज नमित्र” के लछिए लेख तो भेजता
रहूंगा ही ।
ए। कहकर श्री श्र० सीतलप्रसादजी मित्र
संप दकीसे अछग हो गये व बर्धामें चातुर्मात दिया
था बहांके एक समाचार किसी पत्रमे छपे हमारे
देखनेमें आये कि वर्धामें जमनालाल बजाजहे बंगलेमें
आपने एक चिधव। विवाह कराया और आशीर्वाद
दिया । यह पढ़कर हम ताजूब हो गग्रे और पत्रसे
हा, ना पूछाया तो अद्यचारीजीका पत्र आया कि हां,
ठीक बात है, मैने तो सनातन जैन सभा स्थापित
की है उससे 'सनातन जैनः मासिक निकेगा व
झअकोल.में बिधव.भ्षम भी खुलेगा व कस्त्रभंद काम
करेगा आदि । इस पर १५ दिन तकं हमरा ग्रः
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