हिंदी उपन्यास उपलब्धियाँ | Hindi-upnyas Uplabdhiya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
157
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)-सम्भावनापों के नये दितिज १५
आधुनिक साहित्यिक रूप स्पष्ट नही होठा । उनका कथन अ्रमरकोप के 'उपन्या-
सस्तु वाहूमुखम्' भर्थात् बात झारम करने के दो नाम, उपत्यास (प्रारम) झोर
बाई मुख (भूमिका) पर आधारित है। संस्कृत में 'उपन्यास' शब्द का प्रयोग “निकले
हुए वचन' के भ्रथ॑ मे भो हुप्रा है। सच तो यह है कि स्वयं किश्योरीलाल गोस्वामी
के उपन्यास ही “रचना उत्तरोत्तर प्रास््वर्षजनक एवं कुछ ভি ই कपा ऋमशः
समाप्तिमे प्रस्फुटित हो' की कसौटी पर खरे नही उतरते । इससे उपन्यास को भाधु-
जिकता पर प्रकाश नहीं पडता । ग्राघुनिक उपन्यास जहाँ एक झौर पुराती কন
और झाख्याधिकाओों से भिन्न है, वहदवृसरी भ्ोर वह केवल झपने झब्दार्य (उपर
पास, स्थास्त-+ रखना) द्वारा यह भी सूचित करता है कि लेखक पाठक के निकट कुछ
रखना चाहता है, पाठक के निकट कोई नवीद बात या मत प्रकठ कर्ता चाहता
है। उसकी यह विश्विप्टता भाधुदिक काल की देन है । उपन्यासकार मध्यधुगीन
घर्माबिकारी और नेतिक उपदेश देने वाले गुर का प्राघुनिक उत्तराधिकारी है।
भानव-जीवन को समग्रता एवं ययाय॑ परिवेश हों उपस्यासो में चित्रित होते
है मरौर एक विराट कंन्बेष मे युगीने जीवन एवं समकालीन जीवत-चित्तन फे
विविध पञ्ष उसमें कलाल्मक प्रभिव्यक्नि पति है । शस रस्टिसे देखा जाप, हो
उपन्यास झौर मातव-जीवत में थन्तर नही रह जाता । वस्वुतः, भच्छे उपन्यासो
री यह पहचान ही है कि उसके पठत-पाठनत में किसी कहिरत कथा का वहीं, अपने
निध्य-भ्रति के देखे झौर जीए जाने बाते जीवन का भभाव हो । हिंदी में ही मही
सब देशों के उपन्णहर-साहित्य के लिए श्रेष्ठता की यही केसौदी स्वीकार की गई
है। टाल्छटाय, दास्वावस्कौ, बेखव, गोगोल, इलोखोव, जात स्टाइनवैक, योरित
पाल्तरनाक, प्रेमचन्द भ्रादि के उपन्यासों को पढ़ते समय यही प्रतीत हीता है, जैसे
हम स्त्रय उपन्यास में वर्णित जीवन में साँस ले रहे हैं भौर उसके पात्री के दु ख-
छुल के स्वय 'भोक्ता हैं ।
यह बात तो समभ मे पाती है कि उपन्यास केयल मनोरजन के साधत नही
है, पर जब कुछ लोग यह कहते हुए सुते जाते हैं कि उपन्यासों कर काम जीवन के
सिद्धास्तों को शास्त्रीय व्यात्पा एवं विश्लेपण कर एक धादर्श प्रस्तुत करना है,
तो हेंसी भ्राएं बिना नहीं रहती । जहाँ दक मैं समझता हूँ, उपन्यास का वास
मनोरजन के साथ-साथ जीवन के ययाये, उसको कटुता एवं भयंकरता से परिचित
कराकर स्वस्थ दप्टि देता है, कोई उपदेश (प्रोचिंग) देना महीं। उपदेश देता
किसी सस्या, सुघारक या किसी सम्प्रदाय का उद्देश्य हो सरवा है, उपस्यास का
हो निद्िचत रूप से नही ॥ उपन्यास जद संदेश देते भौर प्लादर्श स्थापित करने
वी घून में रवे जाते हैं, तो दे भपना वास्तविक प्र्थ खो देते हैं, उतका महर्व
समाप्त हो जाता है । त्छर्ी शई दशाम्दियों मे झाद्श घौर सुधार करने बी
ओोक भे हर बाकप में जोवत का सत्य घोदित करने वाले भ्रनेक नये-युराने कथा«
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