कसायपाहुडं | Kasaya Pahudam
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
397
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about आचार्य वीरसेन - Aacharya Veersen
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ९५ )
एक स्थितिकाण्डकघालक। कारु जिस समय समाप्र होता है उसी समय उसके साथ
होनेबाले स्थितिबन्धापसरणका काल भो समाप्त होता है । तथा इस एक स्थितिकाण्डकघातके
कालके भीतर दृजारों अनुभागकाण्डकघात होते हैं। उनमेंसे अन्तिम अनुभागकाण्डकघात भी
उक्त दोनोंके साथ ही समाप्त होता है |
इस प्रकार हजारों स्थितिकाण्डकघातों, हजारों बन्धापसरणों और एक-एक स्थिति-
काण्डकयातके भीतर हजारों अनुभागकाण्डकधा्ोक होनेपर अपुवंकरणका काठ समाप्त
शोकर तदनन्तर समयमे संयतासंयत हो जाता है । यह् भाव संयतासंयतक्रा स्वरूप ३, दरम्य-
संयतासंयत तो पल्स ही था । किन्तु इसके धिना उसको पाखन करनेवाला जीव यथार्थे
संयतासंयत कषलानेका अधिकारौ नदीं था । इसके पहले बद्द भावसे असंयत ही था।
इसलिए भावोंकी अपेक्षा यहाँ बह असंयमरूप पर्यायकों छोड़कर सयमासयमरूप पर्यायको
प्राप्त करता हे।
इस प्रकार जिस समय यह् जीव संयमासंयमको प्राप्न करता ह उसके प्रथम समयसे
लेकर अन्तसुंहूतं कान तक इसके परिणामोमे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती रहती है ।
इसलिए इस बिशुद्धिको एकान्तानुवृद्धिरूप विशुद्धि कहते हैं। यद्यपि यह विशुद्धि करणस्वरूप
नहीं हे फिर भी इसके माहात्म्य वश अपूब स्थितिकाण्डकघात, अपूब अनुभागकाण्डकघात और
अपुबं न्थित्तिवन्धको यह् जीव प्रारम्भ करता है । तथा असंख्यात समयप्रबन्धोका अपकर्षण-
कर उदयावलि बाष्यगुणश्रेणि रचना मी करता है ] आशय यह् है कि संयमासंयमको प्रप्र
करनेके प्रथम समयमे हौ उपरिम स्थित्तिमे स्थित द्रभ्यका अपकपंणकर गुणश्रेणनिक्षेप करता
हुआ उदयावलिके भीतर असंख्यात लोकसे भाजित लब्ध द्रञ्यको गोपुच्छाकारसे निक्षिप्कर
उदयावलिके बाहर अनन्तर स्थितिमें असंख्यात समयग्रकद्धोंका निश्षेप करता हे । इसप्रकार
गुणश्रेणि ज्ीपंतक उत्तरोत्तर प्रत्येक स्थितिमे असंख्यातगणे द्रम्यका निक्षेपकर उससे उपरिम
म्यति असंख्यातगुणे होन द्रव्यका निक्षेप करता दै । उसके वाद प्रसेक रिथतिमे उत्तरोत्तर
विशेष हीन द्रव्यका निश्लेप करता है। यहाँ यह अवस्थित गुणश्रेणि हे, इसलिए द्वितीयादि
समयोमें उतना हो गुणश्रेणि निश्षेप होता है ।
इसप्रकार बहुत स्थितिकाण्डकघात आदिके साथ एकान्तानुबृद्धि संयतासंयतकार समाप्त
होनेपर यह জীন अधश्प्रवृत्त संयतासंयत हो जाता हे। यहाँसे इसकी स्वस्थान बविश्लुद्धिका
प्रारम्भ जाताहेः। इसके स्थितिघात ओर अनुभागघात ये कार्व नहीं होते। ऐसा जीव
कुछ काछ तक संयमासंयमका पालनकर तीत्र विराधनाकी कारणभूत बाक्ष सामग्रीके बिना
केबल तत्मायोग्य संक्छेश परिणाम होनेपर संयमासंयमसे च्युत होकर असंयमभावको भी
प्राप्त हो जाता है । यह तत्मायोग्य विशुद्धिके साथ मनन््द् संवेगरूप परिणामके द्वारा स्थिति
ओर अनुभागमें बृद्धि किये विना जीवादि पदार्थोको यथावत् स्वीकार करता हुआ शीघ्र ह
संयमासंयमको भी प्राप्त हो सकता हे । इसके करणपरिणाम न होनेसे स्थितिकाण्डकघात
और अनुभागकाण्डकघात आदि कार्य नहीं होते ।
इतनी विशेषता है कि संयतासंयतके निमित्तसे गणश्रेणिनिजेराके सतत होते रहनेका
नियम है, इसलिए संयतासंयतके गुणश्रणिनिजराका जधन्य काल अन्तमुंहूर्त है और उत्कृष्ट काल
कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इतना अवश्य है कि यद्द गुणभ्रेणिनिजेरा यथासम्भव विशुद्धि
और संक्लेशके अनुसार न्यूनाधिक होती रद्दती है । विशुद्धिके अनुसार प्रत्येक समयमे पूवे
समयकी अपेक्षा कभो असंख्यातगुणी, कभी संख्यातगुणी, कभी संख्यातवाँ भाग अधिक और
कभी असंख्यातवाँ भाग अधिक होती है । तथा संक्लेशके अनुसार कभी असंख्यातगुणी दीन,
User Reviews
No Reviews | Add Yours...