जपग्रन्थ प्रदीप | Japgarnth Pradeep

Japgarnth Pradeep  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गंस्ग्रन्धप्रदीफा: . १४. पदाथ सृकेपे निरणीतहुए्‌ जथ ररनानकदेवजीके रः का निरुणाएःकरेतेह॥ इसमे यह कारीतीयदिग नानकईखरका अर्वतार पवेक् प्रगीए फिसिदेहये शव सात्षात्‌ $खरका खरुपहें जव खखारुप हुए: तब तिनेकी गुरुकी अपेव्षाजही की किम अवियाइते आवरण | होता नहीं।इसीवास्ते योगसत्रमें ईशरकों सूप गुरुतां জিআই বসা सएपंपूरपामपिणुरुकालिनां नुष्छेद्‌त्‌॥ योग० पद१।सुर २६॥ अथै॥ सो यहं परमेखरसृश्टिके आदिका लगे होनेवाले बंद्याआ दिंकोंका गुरुहे क्योंफि कालकरके: अनवन्ठिन्त होनेसेः ` अंयीतकालकृतमेद्प रहितहोने से भाव यहहे. जो किसी कालमें होवेःओर किसी कालमें न होवे सो कालकरके भेद.संहित होता है औरपरेशरस्वेकाल में है इससे कारुकृत भेदसे रहितहे इप्त वर्ष में हुआ और इतने বা और अमुक वर्ष में न होगया जो इस प्रंकारका पद होताहे सो कालकृत भेदयुक्व होताहै-प्रमात्मा सवेकार्ले हे इस-वास्ते कालऊंत भेद रहितहे। प्रकरेएमें यह सिद्ध हभ. जोकि शवर खययुरुहय वरहाभादिकफे के उपदेश केटैःइधीवासते गर्मतमे {खरक वाहगुरुंनांमसे बोलिते हैंः॥ बाहयन्तिकरियान्तजगहुतत्त्यादिका




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