अध्यात्म अमृत कलश | Adhyatma Amrit Kalash

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Adhyatma Amrit Kalash by कैलाश चन्द्र शास्त्री - Kailash Chandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रोवकर्थन १३ गतिमें कालयापंन करना पड़े तो उससे तो स्वर्गादिमें कालयापन करना श्रेष्ठ ही कहा जायेगा । ग्रीष्ममें एक आदमी धूपमें और एक छायामें खड़ा हो, उन दोनोंमें छायामें खड़े होनेवालेको श्रेष्ठ ही कहा जायेगा 1 यतः ब्रतोके धारण करनेसे पुण्यबन्ध होता है अतः त्रतोका धारण करना भी हिय है यह्‌ कथन उनके ल्यि तो उपयुक्त हो सकता है जो अशुभोपयोगको छोड़कर झ्ुभोपयोगमें संलग्न हैं। किन्तु जो अशुभपयोगमें आसक्त हैं, या उसे नहीं छोड़ सकते हैं, उनके सम्मुख अशुभोपयोगको छोड़नेपर बल न देकर, मात्र शुभोपयोगकी हैयतापर ही जोर देना उचित नहीं है । इसीसे विवाद बढता है । सिद्धान्ततः यह्‌ ठीक ह कि अशुभोपयोगकौ तरह बुभोपयोग भी मोक्षार्थी के किष हेय ह । क्योंकि दोनों ही उपयोग अशुद्ध हैं। अन्तर इतना ही हे कि भशुभोपयोगमें कषायकी तोत्र ता होती ह ओर शुभोपयोगमे कषायकी मन्दता होती हं । अतः एकसे पापबन्ध होता है तो दुसरेसे पृण्यबन्ध होता है। किन्तु बन्धका निरोध हए बिना मोक्ष नहीं होता ओर बन्धका निरोध कसं संन्यासके विना नहीं होता । इसीसे कलरमे कहा हे-- 'संन्यस्तन्यमिदं समस्तमपि तत्कमेँब सोक्षार्थिता, संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा ४ अर्थात्‌ सोक्षार्थीको समस्त शुभाशुभ कमं त्याग देना चाहिये । जहाँ समस्त कमकि त्यागकी बात कही गई हो वहाँ पुण्य ओर पापके भेदकी कथाको स्थान कहाँ ? इसपरसे यह शंका उठाई गई है, जो प्रायः उठाई जाती है, कि मिथ्याहृष्टि की शुभाशुभ क्रियाएँ वन्धका कारण भले हों, किन्तु सम्यग्दृष्टिकी शुभ क्रियाँ तो मोक्षका कारण हैं। सभी मोक्षार्थी साधु षष्ठादि गुणस्थानोंमें सकल संयम रूप चारित्रको धारण करते हैं। यदि संयमको बन्धका कारण कहेंगे, तो लोग संयमके मार्गको छोड़ असंयमी हो जायेंगे। इसका समाधान करते हुए पण्डित जीने लिखा है--जब सम्यर्दृष्टि की शुभ- क्रियाएँ भी बन्ध का कारण हैं तब सम्यर्दृष्टि शुभ क्रियाओंको छोड़कर असंयमी वन जाये यह्‌ कभी भी संभव नहीं है । जो तत्त्वज्ञानकी चर्चा तथा स्वाध्याय करनेवाले उक्त उपदेशको पाकर संयम छोड़ असंयमी बनते हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। सम्यर्दृष्टि वस्तुको यथार्थ रूपसे जानता है। उसे सम्यग्ज्ञान है अतः वह तो भसंयमको छोड़ संयमी ही बनेगा, फिर शुभभाव रूप सराग संयमको भी छोड वीतरागी निर्वय- चारित्री बनेगा । असंयमी नहीं बनेगा । आगे पं० जीने इसे और भी विस्तार से स्पष्ट किया है। अन्तमें लिखा है--'उक्त कथनसे यह निष्कर्ष निकछा कि एकान्ततः बाह्य चारित्र मात्रसे मोक्ष नहीं होता । किन्तु जो अशुभ परिणतिको छोड़ शुभ परिणिति रूप आचरणके द्वारा स्वरूप साधनका प्रयत्न करते हैँ वे जीव शुभाशुभ कर्मसे ऊपर उठकर स्वयं शुद्धोपपोग रूप परिणतिमें लीन होते हैं वे अप्रमादी ही मुक्तिको प्राप्त करते हैँ ।




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