मानसरोवर | Mansarowar

Mansarowar by मुंशी प्रेमचंद - Munshi Premchand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गरीब, की हाय १७ है! भोर को साँक के करार पर रुपया लेते, पर वह साँक कमी नदी आती थी। साराश, मुंशीजी कर्ज लेकर देना सीखे नहीं थे । यह उनकी कुल-प्रथा थी। यही सब मामले बहुधा मुशीजी के सुख-चैन मे विघ्न डालते ये । कानून और अ्रदालत का तो उन्हें कोई डर न था। इस मैठान मे उनका सामना करना पानी में मगर से लड़ना था! परन्तु जब कोई दुष्ट उनसे भिड़ जाता, उनकी ईमानदारी पर सदेह करता ओर उनके मुँह पर बुरा-मला कहने पर उतारू हो जाता, तव मुशीजी के हृदय पर यी चोट लगती । इस प्रकार की दुर्घटनाएँ प्राय: दोती रहती थीं। हर जगह ऐसे ओछे लोग रहते ह) जिन्दे दूसरों को नीचा दिखाने मे ही आनन्द आता है। ऐसे ही लोगों का सहारा पाकर कमी-कमी छोटे आदमी सुशीजजी के मेंह लग जाते थे। नहीं तो, एक कुजड़िन की टतनी मजाल नहीं थी क्रि उनके आँगन में जाकर उन्हें बुरा-भला करे । मुशीजी उसके पुराने गाहक थे, वस्सों तक उससे साय-माजी क्षी थी। यदि दाम न दिया तो कजड़िन को सतोप करना चाहिए या। दाम जल्दी या देर से मिल ही जाता । परन्तु वह मुहफट केर्जाड़न दो ही बरसों मे घबरा गयी, और उसमे कद्ध श्राने पैसों के लिए एक प्रतिष्ठित आदमी का पानी उतार लिया। ऋँकलाकर मंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गये तो इसमें उनका कुछ दोप न था । ( २ এ इसी गाँव में मेंगा नाम की एक विघवा ब्राह्मणौ रहती थी । उसका पति ब्रह्मा की काली पल्‍्टन में हवलदार था ओर लड़ाई में वही मारा गया। सरकार की ओर से उसके अच्छे कामों के बदले मेंगा को पाँच सो रुपये मिले ये | विघवा स्री, जमाना नाजुक था; वेचारी ने ये खव रूपये मुशी रामसेवक को सोप दिये, और महीने-महीने थोड़ा-थोडा उसमें से माँगकर अपना निर्वाह करती रही। मुंशीजी ने यद्द कत्तव्य कई वर्ष तक तो बडी ईमानदारी के साथ प्रग किया । पर जब बूढी होने पर भी मूँगा नहों मरी और मुशीजी को चद्‌ चिन्ता हुई कि शायद उसमे से आधी रकम भी स्वगंयात्रा के लिए. नहीं छोड़ना चाहती, तो एक दिन उन्होंने कहा--मूँगा ! तुम्हें सरना है या नहीं १ साफ- रे




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