काव्यानुशीलम | Kavyanusheelan

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Kavyanusheelan by बलदेव उपाध्याय - Baldev Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० काच्यानुश्ीलन, . समोन अपने दाय-भाग को लेने के लिए पिठ स्थानीय सथ के पास आती है, कमी बह सुन्दर वस्र पहनकर पति को अपने प्रेम-पाश में घाँवने के लिए मचलने वाली सुन्दरी के समान अपने पति के सामने अपने सुन्दर रूप को प्रकट करती हे : अश्रातेव पुस एति प्रतीची गतादगिव सनये धनानाम्‌। जायेव प्रत्य उद्यती सुवासा उपा इस्ेंव नि रिणीते अप्स; ॥१ कवि की दृष्टि उपा के रम्य रूप पर पढ़ती हे ओर वह उसे एक सुन्दर मानवी के रूप में देखकर प्रसन्न दो उठता है। वह कहता दे प्रकाशवती उपा, तुम कमनीय कन्या की भाँति अत्यन्त आकरंणम्यी घनकर श्रभिमत फलदाता सूर्य के निकट जाती हो तथा उनके सम्मुख स्मितवदना युवती की भाँति अपने वक्ष को आवरण-रहित करती हो कन्यव तन्त्रा शाद्यदानों एपि देवि देवमियश्षमाणम,। संस्मवमाना युवतिः पुरस्तादाबिब्रश्वांति इणुप्रे व्िमाती ॥* यहाँ कवि की मानवीकरण की भावना अत्यन्त प्रवल दो उठी हे । यहाँ उपा के कुमारी रूप की कल्पना है । स्मितवदना सुन्दर रूप को प्रकट करने वाली युवती कन्या की कल्पना सूर्य के पास प्रणय मिलन की भावना से जाने वाली उपा के उपर कितनी सयुक्तिक तथा सरस है | उपा के ऊपर की गई अन्य ऋलपनाओं के भीतर भी उतना ही श्चौचित्यः इृष्रिगोचर हा रहा है । बह अपने प्रकाश द्वारा संसार को उसी प्रकार संस्क्रत करती है जिस प्रकार योद्धा अपने शर्खों को घिसक्र उनका, संस्कार करता है : अपेजते झरो अस्तेव झत्रन, बाबत तमो अजिरा न बोछडा ॥२ टपा अधने प्रकाश को उसी प्रकार फलाती द जिस प्रकार ग्वाला चरागाह में गौओं को विस्तृत करता हे अथवा नहीं अपने जल को विल्तृत करती है : ०.२५ ८ >. च्न्वद्र--1 २1७ 2. वाः 1112514० 1 2. वदी, ६।६६८।३ 1




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