उपहार | Uphar

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Uphar by सुभद्राकुमारी चौहान -subhdrakumari chohan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ लडकी ! बेचारी की यह अ्भिलापा न मायके में पूरी होती है श्रीर मन ससुराल में ही। और अन्त में बहुत-कुछ बही उसके नेतिफ पतन का, उसके सर्वनाथ का कारण बन जाती है1 परिस्थितियां उसे विवेश कर देती है; दुर्दान्त मोह उस पर अपने अमोश अरुरें का प्रयोग करता है। गरोव चिन्दो भानवीय दुर्घलतायुक प्क चालिका ही तो उदरी ! लोम का संवरण करना घीमे धीमे उसकी शक्ति के चाहर हो जाता है; और अन्त में एक दिन किसी विचार-शुन्य क्षणु म चद्‌ श्रषने आपयो, कुछ तो की को लालच का और छदं रक नर पशु की हतर दृचि का, दिक्ार वना बेठती है। एक छोटी सो इच्छा को दृध के को प्रकृति उससे कतिना भर्यकर मुख्य लेतो दै, सोचकर जी देल जाता रै। किन्तु विन्दो के जीवन की कटा कथा यहीं नहीं समाप्त हाती । इस पतन के साथ तो सिखकता सम्तोप क्षण भर को शांत दवा सो सकता था, इस अंत के सँग तो इच्छा को पूर्ति दूफनायी ज्ञा सकती है | इतना खुख भी किसे सहा हो सकता हैं ? एफ आधात ओर; और दिदा का उन्‍माथ अपनी আদি ঘং হা । घही कलाधिद की क्हानों का घांद्ित श्र॑त हो सकेगा । वदी श्चेतिस श्रसन बहुत गदय होगा; वही अमर चिरस्थायों होगा। सत्य के इस दारुण स्वरूप को पाठक चिदो के साथ देपे। वर क्डी, जिसे बिदा ने श्प सतीत्व ग्टगार ष्टो उजाडकर सरदा है, सोने को नहीं, मुलम्मे की है। यह निर्मम सत्य, यह मिष्ठुर, ऋर सत्य, विदा के ही नहीं, पाठक के सिर पर भी चजञ्ञ मिरा देने ছি लिए काफी है। फिर यह चद्ध अकस्मात्‌ आ गिरता है पाठक तो वय, स्वयं विदो श्रपनो ष्टी की कहानी फे इस अंत फे लिये तयार नहों हो पाती 1




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