जैन लक्ष्नावाली | Jain Laksanvali

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Jain Laksanvali  by पं. बालचंद्र सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Balchandra Siddhant-Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकोय लगभग ४५ वर्ष पूर्व मैंने पं. दरबारीलाल जी कोठिया न्यायाचायं, एमू. ए., पी-एच. ढी- वाराणसी की प्रेरणा से यहाँ भ्राकर प्रस्तुत लक्षणावली के सम्पादन कार्य को हाथ में लिया था । इसकी योजना स्व. श्रद्धेय पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार द्वारा तैयार की गई थी । उन्होंने इस कार्य को सम्पन्न कराने के लिए कुछ विद्वानों को नियुक्त कर उनके द्वारा दिग्म्बर व हवेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के बहुत से ग्रत्थों से लक्षणों का संकलन भी कराया था। यह संकलन तब से यों ही पड़ा रहा | जो कुछ भी कठिनाइयाँ रही हो, उसे मुद्रण के योग्य व्यवस्थित कराकर प्रकाश में नहीं लाया जा सका | সন जब मैंने उसे व्यवस्थित करने के कार्य को प्रारम्भ किया तो इसमें मुझे कुछ कठिनाइयों का प्रनुभव हुआ । जेसे-- १ उक्त संकलित लक्षणों मे से यदि कितने ही लक्षणों में सम्बद्ध ग्रन्थों के नाम का ही निर्देश नहीं किया गया था तो प्ननेक लक्षणों में केवल ग्रन्थ के नाम मात्र का निर्देश किया गया था--उसके प्रन्तगत प्रधिकार, सूत्र, गाथा, श्लोक प्रथवा पृष्ठ आदि का कुछ भी निर्देश नहीं किया गया था। उनके खोजने में काफी कठिनाई हुई । २ कुछ लक्षणों को ग्रस्यानुसार न देकर उन्हे तोड़-मरोड़कर कल्पितरूप में दिया गया था। उदा- हरणार्थ घवला (पु. ११, पु. ५६) में से संगृहीत 'अकर्मभूमिक' का लक्षण इस प्रकार दिया गया था-पण्णा- रसकम्मभूमीसु उप्पण्णा कम्सभूमा, ण कम्मभूसा प्रकम्मभूमा, भोगभूमीसु उप्पण्णा प्रकस्मभूमा इत्यथ:। परन्तु उक्त घवला में न तो इस प्रकार के समास का निर्देश किया गया है भर न वहां ঘনলা- कार का वेसा प्रभिप्राय भी रहा है। उन्होने तो वहां इतना मात्र कहा है--तत्य ध्रकम्भभूसा उक्कस्स- ट्विंदि ण बंध ति, पण्णारसकस्मभूमीसु उप्पण्णा चेव उक्कस्सद्विदि बंधंति त्ति जाणावणदु' कम्मभूमियस्स वा त्ति भणिद॑' । इस प्रकार के श्रप्रामाणिक लक्षणों का संकलन करना उचित प्रतीत नही हुभा । यदि ग्रन्थकार का कहीं उस प्रकार के लक्षण का श्रभिप्राय रहा है तो ग्रन्थगत मुल वाक्य को--चाहे वह हेतुपरक रहा हो या भ्रन्य किंसीभी प्रकार का-उसी रूपमे लेकर प्रागे कोष्ठक मे फलित लक्षण का निर्देश कर देना मैने उचित समभा है । ३ कितने ही लक्षणो के मध्यमे श्रनुपयोगी भ्रंश को छोडकर यदि भागे क भरौर भी लक्षणो- पयोगी भ्रश दिखा है तो उसे ग्रहण तो कर लियागयाथा, पर वहां बीचमें छोड गये प्रशकीप्रायः सूचना नही की गई थी। ऐसे लक्षणों में कही-कही पग्रन्थकार के भ्राशय के समभने मे भी कठिनाई रही है । प्रतएव मैने बीच में छोडे हुए ऐसे श्रंश की सुचना >( >< इस चिह्न के द्वारा कर दी है । ४ समहीत लक्षणों का जो हिन्दी अनुवाद किया गया था वह प्रायः भावात्मक ही सर्वत्र रहा है--जिन ग्रन्थों से विवक्षित लक्षण का सकलन किया गया है, उनमें से किसी के साथ भी प्राय: उसका मेल नही खाता था। यहा तक कि जो लक्षण केवल एक हो ग्रन्थ से लिया गया है उसका भी भनुवाद तदनुरूप नही रहा । जैसे 'प्रध्वयु” के लक्षण का प्रनुवाद इस प्रकार रहा है-- शिवसुखदायक पूजा--बज्--के करनेवाले व्यक्ति को अध्वयु कहते हैं। । इसके प्रतिरिक्‍्त एवे. ग्रन्थों में उपलब्ध अधिकांश लक्षणों का अनुवाद तो प्रायः कल्पना के झ्राधार पर किया गया था, ग्रत्यगत श्रमिप्राय से वह बहिर्भूत हो रहा है । १, धवलाकार को 'झकमंभूमिक' से क्या प्रभीष्ट रहा है, इसे उक्त शब्द के नीचे देखिये । २. उसका परिवर्तित লুনার তব शब्द के नीचे देखिये ।




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