जैन धर्म और विधवा विवाह | Jain Dharm Aur Vidhava Vivaah

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Jain Dharm Aur Vidhava Vivaah by श्रीयुत सव्यसाची - shreeyut savyasachi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ह हैक ) है । सोमदेद आचाय के मत से वेश्यालेदी भी ब्रह्मचर्याणुब्रती हो सकता है # परन्तु परस्त्रो सेवी नहीं हो सकता। इससे बश्या सेवन हलऊ दर्ज का पाप सिद्ध होता है । किसी स्त्री को विवाह के बिना ही पत्नी बना लेना वेश्यासवन से भी कम पाय है, क्योकि वेश्यासेबी की अपेक्षा रखैल स्त्री वाले की इच्छाएँ अधिक सीमित हुई हैं । विधधा विवाह इन तीन श्रेणियों में स किसी भी श्रेणी में नहीं आता, क्योंकि य तीनों विवाह से काई सम्बन्ध नहीं रखते । कहां जा सकता है कि विधवा विवाह परम्त्री सेवन में ही अन्तर्गत हैं, क्योंकि विधवा परर्त्री है |इसके लिये हमें यह समझ लेना चाहिये कि परस्त्री किसे कहते हैं और चिवाह क्यों किया जाता है ? अगर कोई कुमारी, विवाह के पहले ही संभोग करे तो बह पाप कहा जायगा या नहीं ? यदि पाप नहीं है तो विवाह की जरूरत ही नहीं रहनी । यदि पाप है तो विधाह हे! जने पर भी पाप कहलाना चादिये । यदि विवाह हों जाने पर पाप नहीं कहलाता ओर विवाह के पहिल पाप कहलाता है तो इससे सिद्ध है कि विवाह, व्यभिचार दोप को दूर करने का एक अव्यर्थ साधन है । ज्ञो कुमारी ग्राज परस्त्री है और जो पुरुष आज पर पुरुष है, वे ही विवाह हा जाने पर स्वस्त्री ओर स्वपुरुष कहलाने लगते हैं । इससे मालम होता है कि कर्मभूमि में स्वस्त्री ओर स्वयुरुप जन्म से पेदा नहीं हाने, किन्तु बनाये जाते है । कुमारी क समान विधवा # वधृवित्तस्त्रियों मुक्‍वा सरवश्रान्यत्र नने । मातास्वसा तनूजेति मनि्द्य यृदाश्रमे ॥ ---यशस्तिलक




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