ऋग्वेदभाष्यम् भाग - 4 | Rigved Bhashyam Bhag - 4
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
639
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)1; १२८ ऋग्वेद: छा० २1) अ० ७५1३० 128
| भावार्थ:-ये पुरुषा्धथिनां मनुष्याणां सत्कर्तारो;लसकनां तिर-
स्कत्तौरः परिचारकेभ्यः सुखस्य दातार ऐश्वयेवन्तो मवेयुस्त इह
नृपतयों मवितुमहेंयु: ॥ ও ॥ ७
पदार्थ हे ( अये ) सूप के समान सुख देंने वाले ( लग ) आप ( झर-
ङ्के ) एर पुरुषार्थ करने वाले ऊ लिये (द्रविणोदाः) धन देने बते ( चम् )
आप ( रत्नधा: ) रत्नों को धारण और ( सविता ) ऐस्वर्य के प्रति प्रेरणा
करने वाले ( देव. ) मनोहर ( झसि ) हैं । हे ( नृपने ) मनुप्यों की पालना
| करने वाले भौर (भगः) 7श्वर्यवान् ( खबर ) आप ( वस्वः) धनों की (ईशिपे )
ईेश्वरता रखते है ( यः ) लो (ते) आप के ( दगे ) निज्ञ घर में ( अविधत् )
विधान करता है उस के ( सम ) आप ( पायः ) पालने वाले हैं | ७ ॥
पृ 9 জী भ नै [
माकाथः-नो पसषार्थी मनुष्या कासत्कारनथा अलस्य करने वाला का
¶ तिरस्कार करने वाले ओ्रौर सेवको के लिये सुर देने वाले ऐश्वर्यवान् हो वे र|
संसार में सब के राज्ञा होने को योग्य होते || ७ ||
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
फिर उसी वि० ||
बाम॑ग्ने दम आ विश्पातें विशस्त्वां राजांन॑
सुविद्र॑ऽजने । लवं विश्वानि स्वनीक पत्यसे चं
सहस्रणि शता दश प्रतिं ॥ ८ ॥
तवाम् । भरे । दमं । रा । विदपरतिम् । विशः । लाम् ।
राजनम् । सुऽविवत्रम् | সচল । तम् । विश्वानि ।
লৃঃক্সনীক | ঘত্যল । त्रम् । सहस्राणि । शता । द ।
प्रति ॥ ८ ॥
সপ্ত
४०
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धर्मरक्षक-Dharmrakshak
at 2021-07-02 21:39:37