सुदर्शनोदय काव्य | Sudarshnoday Kavya

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Sudarshnoday Kavya  by क्षुल्लक ज्ञानसागर जी महाराज - Kshullak Gyaansagar jee maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २१ ) यदि मैं इस आपत्ति से बच गया, तो सुनि बन जाऊ गा । अतः सुईशेन ने राज्य स््रीकार करने से इन्कार कर दिया और घर जाकर, अपना अमिप्राय मनोरसा से क॒द्दा । उसने कहा-- “জী तुम्हारी गति, सो मेरी यति, । सुनकर सुदक्षेन प्रसन्न हुआ । दोनों जिनारूय गये । भक्तिभाव से भगवान का अभिषेक भूजन करके बहे विराजमान आचार्य से दोनों ने ज्ञिन दीक्षा लेकी ओर सुदर्शन मुनि बनकर तथा मनोरमा आर्थिका बनकर विचरने खगे। इधर जब रानी को अपने रहस्य-मेद होने की बात ज्ञात आंत्म-ग्कानि से फांसी लगा कर मर गई और उयन्तरी देषी हुई । पडिना धाय रजा के भय से भागकर पाटलिपुत्र की प्रसिद्ध वेश्या देवदत्ता की श्चरण में पदवी । वहा जाकर उससे उसने अपनी सारी कहानी सुनाई और बोली-उस सुदर्शन जेसा सुन्दर पुरुष संसार मे दूसरा नहीं है और संसार में कोई भी ख्री डसे डिगाने में समर्थ नहीं है। देवदत्ता सुनकर बोली - एक बार याँदि बह मेरे जाऊ में फस पावे--तो देखू गी कि वह कंसे बचके मिकलता है । उधर सुदर्शन मुनिराज प्रामानुआम विहार करते हुए एक दिन गोचरी के लिए पाटलिपुत्र पधारे। उन्हें श्राता हुआ देखकर पडिता घाय बोली-देख देवदत्ता, वह मुदर्शन आ रहा है, अब अपनी करामात दिखा | यह सुनकर देवदत्ता ने अपनी दासी भेजकर उन्हें भोजन के लिए पड़िगाह लिया। सुदर्शन मुनिराज को घर के भीतर लेजाकर उसने सब किवाड़ बन्द कर दिये और देवदत्ता ने अपने हाव-साथ दिखाना प्रारम्भ किया | मगर काठ के पुतले के खभान उम प्रर उसका जश्न कोई असर नहीं हुआ, तब उसने उन अपनी शच्या पर पटक लिया, उसके अंगों को गुद शुदाया और उसका संचालन




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