मणिभद्र - नाटक | Manibhadra - Natak

Manibhadra - Natak by विहारीलाल जी जैन - Viharilal Ji Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भभम | ११ नत जी! इसे अच्छी तरह ভিভাটেমা, মানা হাছয়াঘ গীত कराक्ञातिमं शमी न रखियेगा। एस्ताद-पेसा हो होगा भाषकी इस डके मदर्य पिष अद्वितीय कर दूंगा, किसी भी प्रफार कसर ते रप्यूगा | प्रगंग०-में घापले दिशेर पया कह, यह आए द्वीकी उडदी है आए असा जाने सिधाश्येगा| उस्तार--आप फ््यों फिक्र करती हैं | में इस आपकी शडकीको नम्र सोपि ही पला इना दगा जिसरे सपरा एठरी न पिकी | प्रनगण~पुके भौ पेद ই আমীর है ( पुपतिककारे ) सीधे पह भौ उस्ताद वृणी क्पे पवि सोढ । सताद्‌- एष्यति $ दीक वेह अप पर ) मेरे सामने देख और मैं कैसे बोछू' तू भी वैसे ही बे । हां कह, सा, रे, प, म,प, ध, ती, सा पुति पेता दी कती है) नि, थ, १, मे, ग, रे; सा ( पुणतिलदा भी वदी एती दै) सार, रेप, गार, मष, पधनी, घरीछा। ।पुषगिलक्ा म यही बोली है) सफष, निधप, ध, पम, मगरे पका, ह (पुघ मी कहती है ) জাতী জাজ रे सांम्ररिया तुम पर वार्ता रे ॥ ( पुघण सी (सी प्रद्चाश कहती है ) বাহবা रे, तुए पर वारणा रे, बारी जान र सामिरिण तु पर घारना रे | ( छड़की भी: )




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