समीचीन धर्मशास्त्र | 1877 Sameecheen-darmshstra; (1955)

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1877 Sameecheen-darmshstra; (1955) by जुगलकिशोर विमल - Jugalkishor Vimal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना পথটি ग्रन्थ-परिचय स्वामि-समन्तमद्राचा्य-अणीत इस समीचीन-धर्मशासत्रमे भावर्कोको लसय करके उस धर्मका उपदेश दिया गया दै जो कर्मो- का नाशक है और संसारी जीवोंको संसारके दुःखोंसे निकालकर उत्तम सुखोंमे धारण करनेवाला अथवा स्थापित करनेवाला है । वह घमं सम्यग्दशेन, सम्यणञान श्नौर सम्यकचारित्रस्वरूप हे श्नौर इसी कमसे आराधनीय दै । दशंनादिककी जो स्थिति इसके प्रतिकूल है--सम्यकरूप न होकर मिथ्यारूपको लिये हुए है--वही अधमे है और वही संसार-परिश्रमणका कारण है, ऐसा आचार्य- महोदयने भरतिपादन किया है । इस शास्त्रमे घर्मके उक्त ( सम्यग्दशनादि ) तीनों अंगोंका-- रनत्रयका--ही यत्किचित्‌ विस्तारके साथ वर्णन है और उसे सात अध्ययनोंमें विभाजित किया है । प्रत्येक अध्ययनमे जो कुछ वर्णन दे उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है-- प्रथम अध्ययनमें सत्या्थ आप्त आगम और तपोभृत्‌ ( गुरु ) कें त्रिमूहताराहित तथा अष्टमद्ह्दीन और अष्टअंगसहित श्रद्धान- को “सम्यग्दर्शनः बतलाया है; आप्त-आगम-तपस्वीके लक्षण, लोक-देव-पाखंडिमूढताओंका स्वरूप, ज्ञानादि अष्टमदोंके नाम और निःशंकितादि अष्ट अंगोंके महंत्वपूर्ण लक्षण दिये हैं। साथ ही यह दिखलाया है कि रांगके विना आप्त भमगवानके हितोपदेश




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