प्रसाद जी के तीन नाटक | Prasad Ji Ke Teen Natak

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Prasad Ji Ke Teen Natak by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ १३ ) स्कंदगुप्त के आजाने की सूचना देकर उन्हें चिन्ता से मुक्त कर दिया है । आशय यह कि पाठको की उत्सुकता की शांति तीन चार दृश्यों के पश्यात्‌ अथवा कभी कभी दूसरे दृश्य में ही कर -देना असाद' जी का नयम रहा है। प्रथम अंक, पँचव दृश्य में रानी पद्मावती से उदयन के नाराज होने की सुचना मलती है अर वह मागंधी के उत्ते-जत करने पर प्रतेशोध के लिए लेयार हो जाता है। पाठको' के'मन में स्वभावतः प्र तशोध का स्वरूपं जानने की इच्छा होती. है.। दूसरे ही दृश्य में जीवक हमें सब बातें बतला देता है। इसी अंक के सातवें दृश्य में राजकुमार वेरुद्धक युवराज-पद्‌ से वंचित कयः जाता है और उसकी माता का सम्मान राजमहिणी की तरह न करने की महाराज आज्ञा देते हैं; तभी पाठक के मन में तिरस्कृत परन्तु, निर्भ'क राजकुमार के विचार और उसकी माता के व्यक्तित्व से - परिचित होने की उत्सुकता होती है। दूसरे ही दृश्य में हमारी इस जिज्ञासा की शां ते का प्रबन्ध लेखक कर देता है। रस'- भारतीय नाटक-रचना-प्रणाली से सब से ग्रधान तत्व रस माना गया है | अन्य तत्वों की सार्थकता यही है कि एस की पूर्ण निष्पति मे सहायक -हों। वेरोध, संघर्ष ओरर युद्धप्रधान नाटक में केवल वीर रस की प्रधानता हो सकतो है ओर यहीं अजातशन्र का प्रधान रस माना जा सकता है। साथ ही मद्दाराज् बिबंसार की दाश नकता, महात्मा गौतम की शांतप्रद शिक्षा और मल्लिका देवी की क्षमाशीज्ता से शांत रस भी अवसर पाते ही अपनी कलक देखा जाता है। सारांश यह के वीर अर शांत रसो की दो धाराएँ नाटक में कथा की प्रगते के साथ चलती है शौर अंत तक पहुँचते पहुँचते सघष के समाप्त होने पर प्रथम की अप्रधानता और द्वितीय की प्रधानता स्पष्ट हो जाती है | বান ক্কাতআালভু को बह्यानंद सहोदर मानने बाले भारतीयो की




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