सूरदास और उनका साहित्य | Surdass Aur Unka Sahitya
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
263
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सूरदास और उनका साहित्य ७
के पूष ह्वी सूरदास काफी ख्याति प्राप्ति कर चुके थे। मगर
महाप्रञ्जु का शिष्यस्त अहण कर लेने के पश्चात् उनकी इस कीर्ति में
सुगन्ध उत्पन्न द्यो गई । वास्तव म अपने दीक्ञा-गुर महाप्रसुकी
आज्ञा से उन्होंने श्रीकृष्ण को वाल लीला के सम्बन्ध में जिस
साहित्य का सूजन किया है, वह विश्व-साहित्य में वेजोड़ हे ।
उनके उस साहित्य के अनूठेपन को संसार का कोई भी कवि आज
तक छू तक नहीं सका है |
सम्वत् १४६७ में जिस दिन उन्होंने गऊघाद का त्याग किया,
उस समय वह केवल इकत्तीस वष के थे। महाप्रशु गऊघाट पर
तोन दिन तक निवास करने के पश्चात् गोकुल को पधारे और
अपने योग्य शिष्य सूरदास को पने साथ जेते गये। इस प्रकार
कुछ दिनों तक सूरदास महाप्रभ्ुु के साथ गोकुल् में ही रहे | गोकुल
में रहकर उन्होंने महाम्रश्चु के श्रीमुख से भागवत के जिस प्रकरण
की भी व्याख्या सुनी, उसी पर पदों की रचना की और अपने उन
सरस पदों को प्रतिदिन महाप्रभु को गाकर सुनाया | फिर, वह
अपने गुरू के साथ गोवर्धन में आये और आचाये-प्रवर की आज्ञा-
लुसार श्री नाथ जी के सम्मुख भक्तिपूरों अपने पदों का गायन
करने लगे ।
उन दिनों श्रीनाथ जी एक छोटे से मन्दिर में विराजमान थे |
उनका वह विशाज्ञ मन्दिर जिसे वल्लभाचाय की प्रेरणा से पूरनमत्न
खत्री ने सं० १५४६ की वेशाख शुक्ला ३ को वनवाना प्रारम्भ किया
था, धन के अभाष में अधूरा वता पड़ा था | सूरदास के पहुँचने पर
महाप्रभ्चु वल्लभाचाये ने श्रीनाथ जी को उस अधूरे बने पड़े मन्द्र
में ही स्थापित कर उन्हें श्रीनाथ जी का प्रधान कीति निया नियुक्त
किया | कई वर्षा के पश्चात् फिर श्रीनांथ जी का यह मन्दिर सं०
१४७६ की वेशाख शुक्का ३ को पूर्ण हुआ | सूरदास अपने जीवन के
अन्तिम क्षणों तक इसी मन्दिर में भगवान् के प्रधान कीर्तिनिया के
पद पर रहकर श्रीनाथ जी के प्रति अपनी भक्ति के पद् झदी पुष्पों
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