भूदान यज्ञ वर्ष-16 अंक - 1 | Bhoodan Yagya Varsh-16 Ank-1
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
25 MB
कुल पष्ठ :
790
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)) सर्ब सेवा सघ क्ता मुरव पत्र
अंक 1२
१३ अक्तूपर, !1६६
पप; १६
प्रोमबार
भन्य ष्टौ पर
বাঘ তি की बात --सापाइहीय १५
प्रशान्तिशमन के लिए स्त्रीशशक्ति
शा प्राह्मन विनो १९
परिचर्चा . बेशी का राषटरोयकप्ण
+-रामप्रूति २१
>+भिदराज दरुश ২২
-~पोतिभाई देमाई २४
छवगोरसम्मेलन बै निए विचार
+
भर्त नाग्णोरर, नरे ९५
प्रदूषशशा की पानि बे एानि-येना
के बाये मागि ष्यत २९
सपो मे पूते विद्दन प्रय निभ्ति
-भप्ठिगन पष ३०
धाखोएत के पमारार ३१
»_ सम्पादक
নাক কিন
অথ উহা पंचधा,
হার, ছাছাখঘ-২
भोग । ३१४७
सवे जोष एक वर्तुल की परिधि पर छड़े हैं। ईश्वर वीच के
मध्य-बिन्दु पर है। मान लीजिए कि परिधि पर क, ख, ग, इस प्रकार
तोन জরি खड़े हैं। उन तोनों का परस्र-प्रत्तर ज्यादा-कम हो
राकता है, लेकिन ईइवर से इन तोनों का प्रन्तर एक समान ही है। ये
व्यक्त परिधि के ऊपर चाहे जिस विन्दु पर हो, पर परिधि प्रौर मध्य-
बिन्दु के बीच का भ्रन्तर तो सबका स्रमान ही होगा ।
ईश्वर प्रनन्त गुणों का भडर है। एक-एक जीव/त्म! को एक-एक
गुणाथ प्राप्त है। किसीको धैये का गुण, किसीको करुणा का, तो
किसीको सत्य-निष्ठा का गुण गिला हुमा है। जिसमे प्रेम का अश है,
बह प्रप समगुणा विकासि करें, उसे बढाता जाय, प्रेमणुण की
पुध्टि करता जाय। इस प्रकार करते-करते वह ईश्वर में लोग हो
जायगा, बपरोकि उसके (लिए ईइदर प्रेममय है।
एक बहुत बड़े होत मे दूध है भौर एरू लोटे में भी दूध है। दोनो
के रण, रूप, स्वाद समान हैं । लेकित दोनों की शवित में फर्क है। इसी
प्रकार ईश्वर में सब गुण हैं भौर हर एक गुण पूर्ण है, जब कि जीवात्मा
में एक गुण है भोर वह भाशिक है। तो प्रेम गुथ का विकास फरते-
करते जहाँ उसे प्रेम की परिपूर्ण काँकी मिलेगी वहाँ वह ईश्वर में
सीन हो जायगा, भोर वही उसे सत्यतिष्ठा, करुणा, भौर दूसरे सब
शुण भी मिल जायेंगे, बयोकि ईश्वर के पास सद गुणः
भ्रत भपने मे कौनसे गुण हैं भौर कौनसे दोष हैं, उसका निरी*
क्षण करो। दोप प्रप्तस्य होंगे, गुण दो-चार होंगे। उनमे से कौनसा
गुण सबसे प्रधिक है, पट् समकर उस पुण कौ उपारना करो । उपम
गुण में परमेश्वर को निरसो, उस ग्रुण के द्वारा साथना करो । दोषों
को उपेक्षा करो, उसके कारण ग्लानि नहीं होने दो, उनका चित्त पर
असर मत होने दो । वरना प्रपनी सारी शवित जो हम अपने मुख्य
गुण की प्रिपुष्टि के लिए सगा सकते थे, वह दोष की तरफ ध्यान देने
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मारे है। इसे योगधास्त्र में उपेशा कहते हैं ।
ईश्वर के पाम पहुँचने का भार्म है भपने निज के गुण की वृद्धि
टूमरे के गुण देखकर वह मार्ग पकड़ने को कोशिश की तो राघ्त्ता लम्बा
हो जायेगा। भूमिति में बहते हैं न कि त्रिकोण वी हिन्दी भी दो
भुजाप्रो वा जोड़ तोमरो भुजा ঈ प्रधिक होता है। इसलिए दूसरे के
ग्रुग के लिए हम झादर रखे, दोषों को उपेक्षा करें, झपते में जो गुश
नही हैं उन मामतो में दूसरों को मदद सें, घोर प्रपने गुण की वृद्ध
करते जाये 1 शेप मे यह साधना है!
श॑रो (विहार), ३१.६६९ नन ~ ~ १
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