समाज का मनोविज्ञान | Samaaj Kaa Manovigyan

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Samaaj Kaa Manovigyan  by गिन्सबर्ग मॉरिस - Ginsbarg Mauris

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डे समाज का मनोविज्ञान ओर प्रया कौ व्याख्या मे देखा जा सकता है। इसका एक उदाहरण साविन्यी (82.111) द्वारा स्थापित कानून का तथाकथित एेति- हासिक सम्प्रदाय (17156011021 ১০1)০০1 ০01 [पशप ५८1८८) है, जिसके ऊपर हेगल की धारणाओं का प्रभाव सष्ट है, क्योकि इसके अनुसार कानून चेतन बृद्धि ओर कृति (इच्छा) की उपज नही है, बल्कि एक स्वाभाविक विकास अथवा राष्ट्र की आत्मा का प्रकाशन है। लेकिन राष्ट्रीय आत्मा की यह धारणा बहुत ही अस्पष्ट रही है, और यह नही कहा जा सकता कि क़ानून के इतिहास के क्षेत्र मे इससे कोई परिणाम पैदा हुए है। लजारू (1,92917'05 ) और स्टीन्थाल (91८171119] ) का काम हेगल से असम्बन्धित नही था। इन दोनों को आमतौर पर सामाजिक मनोविज्ञान के सस्थापक कहा जाता है और इन्होने १८६० में लोक मनो- विज्ञान और भाषा-विज्ञान के अध्ययन के लिए एक पत्र निकाला जिसमे एक बहुत विस्तृत प्रोग्राम निश्चित किया गया । (सामाजिक मनोविज्ञान के बारे मे इनकी जो धारणा थी वह बहुत ही रोचक है और उसकी मुख्य बातें डा० मेकडूगल की धारणा से भिन्न नही है। लजारू (1,3221प5) कहता है कि “लोक-मनोविज्ञान का कार्य उन नियमों को ढूँढ़ना हैं जो बहुत-सारे लोगों के एक साथ रहने और इकट्ठे काम करने मे काम करते है।' (ताण) कला, धर्म और व्यवहार मे लोगों का जो सामूहिक আনল সর্ব होता हैँ उसका वैज्ञानिक वर्णन करना लोक- मनोविज्ञान का कार्य है, और इसका सबसे बड़ा काये है, राष्ट्रों के मन मे जो तब्दीलियां होती है, उनका जो विकास ओौर ह्वास होता है, उसका अध्ययन करना। इसकी विधि पूरी तरह से अनुभव-मृलक (ला10011021) मानी गई, अर्थात्‌ यह्‌ निरिचित हुआ कि यह्‌ प्रत्यक्षः




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