वार्षिक विवरण -(1988-1989) | Vaarshhik Vivaran (1988-1989)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
32 MB
कुल पष्ठ :
666
श्रेणी :
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विष्णुदत्त राकेश -VishnuDutt Rakesh
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वीरेंद्र अरोडा -Veerendra Arora
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गुरुकुल कांगड़ी--संक्षिप्त परिचय
जसे ही बीसवीं शताब्दी की ऊपा-लालिमा ने अपने तेजस्वी पकी छ
बिखेरती आरम्भ की, एक नई आशा, एक नये जवन, एकं तई स्फृति का जन्म,
हुआ । ४ माच सन् १६०२ ई० को स्वामी श्रदधानन्द जी महाराज ने अपने कर-
कमतो पे एक तए पौषे का रोपण किया । यही नम्हा-पा पौधा आज ८८ वर्ष
बाद ऐसा वृक्ष सिद्ध हुआ जिसने अपनी शाखाओं को पुत्र: धरती में सजो लिया
ओर फ़िर उन्हीं शाखाओं मे नई टहुनियाँ फूट आई । यह पौधा गुरुकुल कांगड़ो,
जिसको स्थापना गंगा के पूर्वों तट पर, हरिद्वार के निकट कांगड़ो ग्राम-के
समाप हुई थो, आज अपनी सुगन्धि एवं उपयोगिता से भारतवर्ष को गौरवान्वित'
कर रहा है।
वीं गताद्दी में लाई मकाने ने भारत में वह शिक्षा-पद्धति चलाई जो,
उनके देश में प्रचलित थी । पर मुख्य अन्तर यह था कि जहाँ इ गण्ड मे शिक्षितः
युवक अपनी हो भाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करके सम्मातजनक नागरिक,
बनने का स्वष्ण देखते थे, वहाँ भारत में विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ हुए.
युवक ब्रिटिश शासन के सचिवालयों में तौकरी की खोज करते थे। एक ओर तो
शासन द्वारा प्रतिपादित शिक्षा - पद्धति का यह स्वरूप था, दृसरी
ओर वाराणसी आदि प्राचीन शिक्षास्थलों पर पाठ्शालायें चल रहो थीं.।.
विद्यार्थी पुरानी पद्धति से संस्कृत-साहित्य तथा व्याकरण का अध्ययत कर
रहे थे ।
स्वामी थ्रद्धानन्द जी महाराज ने एक ऐसी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार
किया जिसमें दोनों शिक्षा-पद्धतियों का समत्वय हो सके, दोनों के गुण ग्रहण
करे हृए दोषों को तिलाज्जति दी जा सके। अतः गुरकुल कांगड़ी की प्रारम्भिक
योजना में संस्कृत-साहित्य और वेदांत को शिक्षा के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-
विज्ञान की भी यथाचित स्थान दिया गया था और शिक्षा का माध्यम मातृभाषा
हिन्दी रंखा गया था। নিম स्वामी जी के मन में शिक्षा के क्षेत्र में आयो
इस मानसिक क्रान्ति का खोत महषि दयानर्द जी सरस्वती के शिक्षासम्बन्धी
विचार थे, जिन्हें वे मृ्तरूप प्रदान करना चाहते थे। इनमें ब्रह्मचय और गुरु-
शिष्य के सम्बन्धों पर बल था।
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