वैदिक धर्म वर्ष -6 सितम्बर , 1925 | Vaidik Dharm Varshh-6, Sept-1925

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Vaidik Dharm Varshh-6, Sept-1925 by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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छक ९] पशुश्चेन्निहरत; स्वर्ग ज्यातिशम गा।मष्यति | स्वापिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ॥ अयोव यदि ज्योतिष्टामादिम मारा हुआ पशु स्व- गेको चला जाता हैं तो यजमान अपने पिता को यज्ञ में क्‍यों नहीं मार डालता ताकि उसे भी सीधे स्प- गेंकी प्राप्ति हो ! तर्क की दृष्टिसे अशुद्ध नहीं कहा जा सकता | इस विषयमे विशेष विस्तारस लिखने- को कुछ आवश्यकता नहीं प्रतीत हाती | इन निर्देशोंकों ध्यानमें रखनेसे हमें पता छय स- कता है कि वोदेक यज्ञ वस्तुतः पशुहिंसाके समथक नहीं हैं। कई कई मन्त्रों के अर्थोकों ठीक दौर पर हम वेदिकयज्ञ और पशुहिसा । (२७१ ) अभी समझन में असमथे है उनपर विचार करता चाहिये पर इतना ते! हमें निश्चय है कि वेद परस्पर विरोध नहीं अत; हमें अपने अज्ञान की दशाम यह कहने का अधिकार नही कि वेदके अमुक अमुक मन्त्रो म पञ्ुहिसाका समर्थन है । अन्तम हम बेदके शब्दों में यही प्राथेना करते है कि- हते हंह मा मित्रस्य मा। चश्लुषा रू वाणि भूर्तान सभीक्षन्तां मित्रस्याहं चकुषा सू्वाणि भूतानि समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा स्गीक्षामदे ॥ इन्दर विश्वस्य राजति चं नो अस्तु दविपदे श चतुप्पदे॥ জীহন্‌ शन्तिः शान्तिः शान्तिः | भ € €-€€ क्या वेदों में यज्ञ मे पशुओं की बालि करना लिखाहै! ( छेखक॑- श्री पुरुषात्तमलाछ मुख्याध्यापक गुरुकुछ बेट सोहनी ) लल्ला ्ये> जो मनुष्य मांस खाते दओ यज्ञों में पशुओं की ५ बलि करना मानते हैं वह इसः वेदं मन्त्रकी ओर रषि ` डे; “५ अयौ निविध्य हृदयं निर्य जिह्वां नि निदान्द्धि प्रदता म्रणीह | पिशाचा अस्य यतमो जघाप्ताम्र यविष्ठ प्रति ते श्रणीद्धि ” ॥ अथवे५। २९। १ (अष्षयो)दानों आंखें (निविध्य)छेद डारो( हृदयं ) हृदथ (निविध्य)छेद डाल(ज्िज्लां) जीम(निद्निद्ध)काट डाल (दृतः ) दांतकों (प्रमणीहि ) तोडदे | (यत्तमः) ११जिस किसी (पिशाचः ) मांस भोजी पिशाचने (अरय) ष्ट इसका ( जघास ) भक्षण किया है (यक्रिष्ठ) है सहाबलबान (अग्ने) विद्वान पुरुष (वम) उसको (प्रति) भयक्ष ( श्रुणीहि ) इकड करदे ॥ ॐर देखियेः- ^न क देवा इनीमससि न क्यायपियामासमन्त्र ्रु्य॑चरामसि । '› सामवेद छ० म० २ब०५७मे२्‌ ( देवाः ) हम उपासक लोग (न कि इनीमक्ति) हिंसा न करं (आ )सब ओरसे (नाक योपयामसि ) कसी को अज्ञानयुक्त नकरें | वेद्‌ ता कहते है कि स्र काक्स्याण हो, पशु हा या मनुष्य, यथा- ५८ ३ इन्द्रो विश्रस्य राजति श ने अस्तु द्विप रं चतुष्पदे। » (य ० ३६।५)




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