वैदिक धर्म वर्ष -6 सितम्बर , 1925 | Vaidik Dharm Varshh-6, Sept-1925
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
48
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)छक ९]
पशुश्चेन्निहरत; स्वर्ग ज्यातिशम गा।मष्यति |
स्वापिता यजमानेन तत्र कस्मान्न हिंस्यते ॥
अयोव यदि ज्योतिष्टामादिम मारा हुआ पशु स्व-
गेको चला जाता हैं तो यजमान अपने पिता को यज्ञ
में क्यों नहीं मार डालता ताकि उसे भी सीधे स्प-
गेंकी प्राप्ति हो ! तर्क की दृष्टिसे अशुद्ध नहीं कहा
जा सकता | इस विषयमे विशेष विस्तारस लिखने-
को कुछ आवश्यकता नहीं प्रतीत हाती |
इन निर्देशोंकों ध्यानमें रखनेसे हमें पता छय स-
कता है कि वोदेक यज्ञ वस्तुतः पशुहिंसाके समथक
नहीं हैं। कई कई मन्त्रों के अर्थोकों ठीक दौर पर हम
वेदिकयज्ञ और पशुहिसा ।
(२७१ )
अभी समझन में असमथे है उनपर विचार करता
चाहिये पर इतना ते! हमें निश्चय है कि वेद परस्पर
विरोध नहीं अत; हमें अपने अज्ञान की दशाम यह
कहने का अधिकार नही कि वेदके अमुक अमुक
मन्त्रो म पञ्ुहिसाका समर्थन है । अन्तम हम बेदके
शब्दों में यही प्राथेना करते है कि-
हते हंह मा मित्रस्य मा। चश्लुषा रू वाणि भूर्तान
सभीक्षन्तां मित्रस्याहं चकुषा सू्वाणि भूतानि
समीक्षे मित्रस्य चक्षुषा स्गीक्षामदे ॥ इन्दर
विश्वस्य राजति चं नो अस्तु दविपदे श चतुप्पदे॥
জীহন্ शन्तिः शान्तिः शान्तिः |
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क्या वेदों में यज्ञ मे पशुओं की बालि करना लिखाहै!
( छेखक॑- श्री पुरुषात्तमलाछ मुख्याध्यापक गुरुकुछ बेट सोहनी )
लल्ला ्ये>
जो मनुष्य मांस खाते दओ यज्ञों में पशुओं की
५ बलि करना मानते हैं वह इसः वेदं मन्त्रकी ओर रषि
` डे;
“५ अयौ निविध्य हृदयं निर्य जिह्वां नि
निदान्द्धि प्रदता म्रणीह |
पिशाचा अस्य यतमो जघाप्ताम्र यविष्ठ प्रति ते
श्रणीद्धि ” ॥ अथवे५। २९। १
(अष्षयो)दानों आंखें (निविध्य)छेद डारो( हृदयं )
हृदथ (निविध्य)छेद डाल(ज्िज्लां) जीम(निद्निद्ध)काट
डाल (दृतः ) दांतकों (प्रमणीहि ) तोडदे | (यत्तमः)
११जिस किसी (पिशाचः ) मांस भोजी पिशाचने (अरय)
ष्ट
इसका ( जघास ) भक्षण किया है (यक्रिष्ठ) है
सहाबलबान (अग्ने) विद्वान पुरुष (वम) उसको (प्रति)
भयक्ष ( श्रुणीहि ) इकड करदे ॥ ॐर देखियेः-
^न क देवा इनीमससि न क्यायपियामासमन्त्र
्रु्य॑चरामसि । '› सामवेद छ० म० २ब०५७मे२्
( देवाः ) हम उपासक लोग (न कि इनीमक्ति)
हिंसा न करं (आ )सब ओरसे (नाक योपयामसि )
कसी को अज्ञानयुक्त नकरें | वेद् ता कहते है कि
स्र काक्स्याण हो, पशु हा या मनुष्य, यथा-
५८ ३ इन्द्रो विश्रस्य राजति श ने अस्तु द्विप
रं चतुष्पदे। » (य ० ३६।५)
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