वैदिक धर्म वर्ष -34.जनवरी, 1953 | Vaidik Dharm Varshh-34, Juun-1953
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
52
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
महेशचन्द्र शास्त्री -Maheshchandra Shastri
No Information available about महेशचन्द्र शास्त्री -Maheshchandra Shastri
श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar
No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भारतीय संस्कतिका स्वरूप
+ हम ध्यान करते हैं,' शोर ' वह दमारी बुद्धियोंकों प्रेरित
करे ? इन शब्दोंको उपयुक्त माना जा सकता है। भाज् हम
भके भवेरु सन्ध्या किया करते हैं | किन्तु घरकें सभी
खपुर मिलकर हस प्रकार सन्ध्या प्रार्थना करते हुए किसी
हिन्दु घरमे दिस्गहं नहीं देगे । एकाकी रहकर सन्ध्या घोर
गायश्रीका जप करते समय ( देवस्थ भगे धीमहि )
इेवके तेजका दम सब मिलकर ध्यान करते हैं, ऐसा कद्दना
क्या उचित द्वोण ? इसका विचार भी उपासना करनेवाले
के मनमें उत्पन्न नहीं दोता !
इस सामुदायिक प्राथनाकों हमने सर्वेथा! वैयाक्तिक बना
डाल है । पारिवारिक उपासना हममे नहीं रही, सामुदायिक
प्राथना इमें स्मरण भी नहीं है, इत्ना ही नहीं है;
भ्षपितु सामुदायिक द्वितके यज्ञ भी आज दमरमेसे
लुप्त द्वो गये हैं जो मन्दिर भ्राज भस्तिस्वमे ह उनमें
जाकर भी कोई सामुदायिक प्राथना नहीं करता। हम
सामुदाणिक विचारसे हतने दूर चले गये है । वदिक ऋषि.
योंका जीवन तो सामुदायिक जीवन था । देखिये -
स्च नो धहि ब्राह्मणेषु रच राजसु नस्कराध ।
खचं विद्यु शद्रषु मयि घि रुचारुचम् ॥
अथवे०
हमारे ब्राह्मणोंमें तेज हो, हमरे क्षत्रियोंसें, বাজনা
तथा राजपृरुषोंमें तेज बढ़े वेइय एवं शुद्गोंमें तेज रहे भोर
इसी प्रकार मुझमें भी तेज रहे ।
हमारे बराद्यण-क्षत्रिय--रेक्य-शुदरोमे तेजस्विता बे तथा
हमारे राष्ट्रके समस्त लोग अत्यस्त तेजस्वी हों | हस प्रकर री
यह प्राथैना नि.सन्देदह सामुदायिक है।
सबके लिये अन्न
निकामे निकामे नः पजन्यो वषतु | फलचत्यों
न ओघधयः पच्यम्ताम् ! योग क्षेमा नः कस्प-
ताम् । वा. यज.
“ योग्य समय हमारे देशमें अच्छो वर्षा हो। भोषधि, एवं
वनस्पति फल-पुष्पवती होकर परिपक्व हों कौर दस सबका
योगक्षेम उत्तम प्रकास्से चछता रहे। निःसंशय यह
सामुदायिक प्रापना है ! यक्षके अन्तमें यह हो जाती थी |
जाज भी इसका उपयोग सामुदात्रिक प्रार्थनाक़े रूपमें दो
खकता है | ओर भी देखिये--
(३७७)
आपोहिष्ठा मयोभुवः ता न ऊर्जे दघातन !
হালা दवीरभिप्रथ । शं न आपो धन्वस्याः ।
श्षं नः खनित्रिमा आपः | शिवा লং জন্তু
वार्षिक्री: । अथव, १।५६
“ज हमारा बर बढाव ... कुरुः तालाव तथा बृष्टि
जल हम सनके कयि सुखकर हों । › इस प्रा नामे তম
सबका द्वित ” इन जलोंसे हो, ये शब्द सामुदायिकताको
विद्ध करते है । इसी प्रकार-
यदि नो गां इंसि यद्यश्व यदि पूरुषम् । तं त्वा
सीसेन विध्यामि यथा नोइसो अवीरदा ।
लथवे, १।१६।४
“यदि हममेंसे किसीको राय मारेगा, घोडेका बध करेगा
मथवा मनुध्यको हत्या करेगा तो तेरा हम सीसेकछी गोसे
বন্ধ करेंगे। यह भी सामदायिक सुरक्षाका हो द्योतक है;
इसमें सीसेकी गोलीसे वेष करनेका जो उल्लेख है वह
অহী धकोंके छिये एक विचारणीय उत्तम प्रश्न है। बंदुकछी
कल्पना यहाँ कीजा सकती टै अथवा छीसेका अन्य किसी
प्रकारसे उपयोग सम्भव द्वो तो वह भी विचारणीय है ! भोर
देलिये--
निर्ूलश्यं लछाग्यं मिरराति सुवामसि | अथ
यामद्रा तानि नः प्रज्ञाया अरतिं नवामासि |
अधथवब० १।१८।१
^ घब प्रकारै हुश्चिद्ध मसे दुर दहो अर जो कल्याण-
कारक चिन्ह हों वे सब हमारी प्रजामोके पाप भार्वे ।
अनुदारता हमसे दूर रहे । ”
£ समस्त उत्तम रक्षण दमार पाप्त भात्र ! ऐसा यहीं
कहा गया है ¦ मरे पास লাই হুদা नहीं क्षा गया।
बद्द वेदिक ऋषियोंकी सामुद्दिक प्राथेना है । इसी प्रकार --
मानो विदन् विन्याचिनो ' मो अभिन्याधिनो
विदन्! क्षधव० 11१९
“ बेघ करैंनेदाले शत्रु दमारे पाप्त न क्राव । अर्थात्
दमारा पता हमारे झत्रुओंकों न लगे । हम सब उनके आकर -
मणसे दूर भर सुरक्षित रहें | सबकी सुरक्षाके তন অব
सामुदायिक प्रार्थना है। इसी प्रकार--
User Reviews
No Reviews | Add Yours...