ग्राम्या | Gramya

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Gramya by श्री सुमित्रानंदन पन्त - Sri Sumitranandan Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्राम युवती दिसंबर '३६ ] आम्र मोर, सहजन, पलाश से, निजंन मे सज ऋतु सिगार ! तन पर यौवन सुषमाशाली मुखे पर श्रमकण, रवि की लाली, सिर पर धर स्वणं शस्य डाली, वहु मेडो पर भातौ जाती, उरू मटकाती, कृटि लचकाती चिर वर्षातप हिम की पाली धनि श्याम वरण, अति क्षिप्र चरण, अधरों से धरे पकी बाली रे दो दिल का उसका यौवन ! सपना दिनि का रहता न स्मरण । दुःखो से पिस, ছিলি मे चिस, जजर हो जाता उसका तन | ठह जाता असमय यौवन धन ! बह जाता तट का तिनका जो लहरों से हँस खेला कुछ क्षण ! | १६




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