श्री गणेश वर्णी जैन ग्रंथमाला | Shri Ganesh Varni Jain Granthamala

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Shri Ganesh Varni Jain Granthamala by दरबारी लाल कोठिया - Darbarilal Kothia

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ५ भनुष्यका आवास है। अतः शुरूके ढाई द्वीप और दो समुद्र मनुष्य लोक कहे जाते हैं । जम्बूद्वीपके मध्यमें सुमेरु पर्वत है। उसकी ऊँचाई एक लाख योजन है। घातकी खण्ड और पृष्कर द्वीपमें भी दो दो मेरु हैं। उनकी ऊँचाई ८४ हजार योजन है। जम्बूद्वीपमें सुमेर्से दक्षिणमें हिमवान, महाहिमवान और निषध नाम- के तथा उत्तरमें नील रुक्मि और शिखरी नामके वर्षघर पव॑त हैं। प्रथम मेर पर्वतके दक्षिणकी ओर क्रमसे भरत हैमवत ओर हरि नामक और उत्तरमें रम्यक हैरण्यवत ओर एेरावत नामके वषं ( क्षेत्र ) हँ । उन सबके बीचमें विदेह वषं है । उस विदेह वर्षके बीचमें सुभेर पर्वत ह । भरत वर्षका उत्तर दक्षिण विस्तार पांच सौ छन्बीस योजन भौर एक योजनके उन्नीस भागम से ६ भाग है । अगिका प्रत्येक वर्षधर पर्वत और वषं विदेह पयन्त दना दूना विस्तार ल्यि हए ह । ओर विदेहके पश्चात्‌ रावत पयन्त यह विस्तार क्रमसे आधा होता गया है । अतः भरत ओर एेरावत वर्षका विस्तार জলাল ই । ये दोनों धनुषाकार रहँ । इन दोनोके मध्यमे एक विजयाधं गिरि ह । हिमवान पर्वतसे निकलकर गंगा ओौर सिधु नदी भारतवर्षमें होकर वहती हं भौर विजयार्धके नीचेसे निकलकर लवण समुद्रम गिरती हँ । इसी तरह एेरावतमें शिखरी पर्वतसे निकलकर रक्ता रक्तोदा नामकी नदी विजयार्धके नीचेसे होती हुई एेरावत লঙ্গল बहती हँ ओर लवण समुद्रम गिरती हँ । इन दोनों नदियों ओर विजयार्ध पवतके कारण भरत भौर एेरावतके छ छं खण्ड हो गये है । उनमेसे पांच म्लेच्छ खण्ड भौर केवल एक आयंखण्ड हैं । विदेहक्षेत्रका विस्तार भरत से चौसटगुना हं । बीचमे सुमेरु परवत ह । उसके चारों ओर चार गजदन्त पर्व॑त हं । उनममेसे मेरुसे पद्चिमोत्तर दिशा में गन्ध- मादन, उत्तर पूर्वं दिशामें माल्यवान, दक्षिण पूवं दिशामें सौमनस, भौर दक्षिण सहस्र योजन ऊचा ओर इतना ही सब ओर गोलाकार फला हुआ ह । यह्‌ पर्व॑त पुष्कर द्वीपरूप गोलेको मानों वीचमें से विभक्त कर रहा है और इससे विभक्त होनेसे उसमें दो वर्ष हो गये हैं । उसमें प्रत्येक वर्षं ओर पर्वत वलयाकार ही हैं ॥७४-७८।। “पुष्कर द्वीप चारों ओरसे अपने ही समान विस्तार वाले मीठे पानीके समुद्रसे मण्डलके समान घिरा हुआ है ॥८७॥ इस प्रकार सातों ढ्वीप सात समुद्रोंसे घिरे हुए हैं। और वे द्वीप तथा समुद्र परस्पर समान हैं और उत्तरोत्तर दुगने होते गये हैं ॥८८1।*'''पृष्कर द्वीप- में सम्पूर्ण प्रजावर्ग सर्वदा अपने आप ही प्राप्त हुए पट्रस भोजनका आहार करते हैं ॥ ९३ ॥ --वि० पु०, अंश २, अ० ४ ।




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