श्री अन्तकृद्दशाड्ग सूत्रम् | Shri Aantakriddashadg Sutram

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Shri Aantakriddashadg Sutram by आत्माराज जी महाराज - Atmaraj Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अन्तकृदशांग सूत्र अन्तकृदशांग सूत्र मे इस प्रकार के भव्य जीवों की दशा का वर्णन किया गया है जो अन्तिम श्वासोच्छवास मेँ निर्वाण-पद प्राप्त कर सके हैं, किन्तु आयुष्य-कर्म के शेष न होने से केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन से देखे हुए पदार्थों को प्रदर्शित नहीं कर सके, इसी कारण से उन्हें ' अन्तकृत केवली' कहा गया है। प्रस्तुत शास्त्र बारह अंगशास्त्रो में से आठवा अग शास्त्र है, इसका अर्थ अर्हत्‌-प्रणीत ओर सूत्र गणधर प्रणीत हैं। इसके आठ वर्ग हैं और एक ही श्रुतस्कन्ध है। प्रत्येक वर्ग के पृथक्‌ू-पृथक्‌ अध्ययन हैं। जैसे कि- पहले और दूसरे वर्ग मे दस-दस अध्ययन रखे गए हैं, तृतीय वर्ग के तेरह अध्ययन हैं, चतुर्थ और पचम वर्ग के भी दस-दस अध्ययन हे, छठे वर्ग के सोलह अध्ययन हैं, सातवें वर्ग के तेरह अध्ययन ओर आठवें वर्ग के दस अध्ययन हँ, किन्तु प्रत्येक अध्ययन के उपोद्घात में इस विषय को स्पष्ट किया गया है कि अमुक अध्ययन का तो अर्थ श्री श्रमण भगवान्‌ महावीर स्वामी ने इस प्रकार से वर्णन किया हे, तो इस अध्ययन का क्या अर्थं बताया हे ?' इस प्रकार की शंका के समाधान में श्री सुधर्मा स्वामी श्री जम्बुस्वामी के प्रति प्रस्तुत अध्ययन का अर्थ वर्णन करने लग जाते है, अतः यह शास्त्र सर्वज्ञ-प्रणीत होने से सर्वथा मान्य है। यद्यपि अन्तकृदशांग सूत्र मे भगवान्‌ अरिष्टनेमि ओर भगवान्‌ महावीर स्वामी के ही समय में होने बाले जीवो कौ संक्षिप्त जीवन-चर्या का दिग्दर्शन कराया गया हे, तथापि अन्य तीर्थंकरो के शासन मे होने वाले अन्तकृत्‌ केवलियों कौ भी जीवन- चर्या इसी प्रकार जान लेनी चाहिए। कारण कि-द्वादशांगीषाणी शब्द से पौरुषेय है ओर अर्थं से अपौरुषेय है। यह शास्त्र भव्य प्राणियो के लिए मोक्ष-पथ का प्रदर्शक है, अतः इसका प्रत्येक अध्ययन मनन करने योग्य है। यद्यपि काल-दोष से प्रस्तुत शास्त्र श्लोक-सख्या मे तथा पद-सख्या में अल्प-सा रह गया है, तथापि इसका प्रत्येक पद्‌ अनेक अर्थो का प्रदर्शक है, यह विषय अनुभव से ही गम्य हो सकेगा, विधिपूर्वक किया हुआ इसका अध्ययन निर्वाण-पथ का अवश्य प्रदर्शक होगा। गणधर श्री सुधर्मा स्वामी जी की वाचना का यह आठवां अग हे। भव्य जीवो के बोध के लिए ही इसमें कतिपय जीवों कौ सक्षिप्त जीवन-चर्या का दिग्दर्शन कराया गया है, किन्तु समवायाग-शास्त्र मे सविस्तार तथा नन्दीशास्त्र मे संक्षिप्तता से अन्तकृदशांग के विषयो का वर्णन किया गया है। इस विषय मे निम्न प्रकार से उल्लेख प्राप्त होता दै- नन्दी सूत्र मे द्वादशागी वाणी के विषय का वर्णन करते हुए आठवें अंग का विषय निम्न प्रकार से लिखा है- से किं तं अन्तगडदसाओ? अन्तगडदसासु णं अन्तगडाणं नगराडं, उज्जाणाइं, चेड़याईइं, वणसंडाइं, समोसरणाइं, रायाणो, अम्मापियरो, धम्मायरिया, धम्मकहाओं, इहलोडय-परलोइया इड्िडिविसेसा, 211




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