नीलमदेश की राजकन्या और अन्य कहानियाँ | Nilam Desh Ki Rajkanya Aur Anya Kahaniyan

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Nilam Desh Ki Rajkanya Aur Anya Kahaniyan  by जैनेन्द्रकुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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\ -২ ५ \^ । श्या लो, मैं बम्बई आ गया । आज मुझे यहाँ चौथा रोज है | तुम शायद समझते होगे, मैं लिखगा कि बम्बई मुझे नरक माल्म होता है | ऐसा नहीं है । नरककी कोई बात नहीं। आदमी बेचारा है ओर लाखोंकी तादादमें इकट्ठा हो जाने पर भी उसमें यह सामर्थ्य नहीं कि वह अपने मनके बाहर कहीं नरक पैदा कर सके । तुमने कहा था कि मैं बम्बई रहूँ । वहँ। जो भागाभागी ओर आपा- धापी मची हुई है, उसके स्पर्शमें पढ़ेँ | तुम जानते थ कि मुझमें योग्यता है, तब प्रमाद भी है । और शायद तुम्हें भरोसा था कि चारों ओरसे स्पद्धाकि दबाबमें पढ़कर प्रमाद उड़ जायगा और मेरे भीतरकी योग्यता नखर उटेगी । मैं नहीं जानता प्रमाद मुझमें कितना है । अगर वह है तो फिर अगाध है और अकारण नहीं है| खैर, वह होगा । अभी यहाँके व्यग्र जविनके आवर्त-चढ्रेमें तो यद्यपि म नहीं गया फिर भी उस जीवनके प्रवादे उतर चल हू | उस धाराके बीच अपनेको स्थिर रखनेमें कठिनाई मुझे होती नहीं लगती हे | इ्याम, में अपने जड्जलमें रहता था। वहाँ कुछ में ही थोड़े था-- घास थी, पौधे थे, पेड़ थे, पक्षी थे | इन सबके बीच मैंने अपनेको कभी अकेला नहीं पाया। फिर क्यों और कैसा यह तुम्हारा आग्रह कि मैं जन-सड्डुल इस बम्बईमें रहूँ | तुमने समझा हो कि शायद तुम मुझे अपने अकेलेपनसे बचा रहे हो | पर में अकेला कभी था नहीं, कभी होऊँगा भी नहीं । क्योंकि, झत्यको भी अपना साथी बना लिया जा सकता है। लेकिन क्या तुम सचमुच समझते हो कि इस बम्बईमें और उस हिमालयकी तराईके जेगलमें बहुत अंतर है ? अंतर तीं है, पर वह बहुत नहीं है। वह अंतर इतना ही है कि वहाँ आदमियोंकी न होकर पेदोंकी भद थी। पेद क्‍या कम जीते हैं ! क्या वे कम विचित्र हैं ! क्या वे कम दुष्ट और अधिक साधु होते हैं ! हैँ, वे




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