विचारसागर | Vicharsagar
श्रेणी : पौराणिक / Mythological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18 MB
कुल पष्ठ :
432
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)स्तंरगः १. ] विषय ओर प्रयोजन वर्ण ।. (१५)
योंको होइ रही है. य्पि बहुत पंडित भी ऐसे कहें है तथापि षे
मूसही हैं, काहेंतें जो जीविवल्चका वियोग अंगीकार करें हैं ते
দু कहियें हैं तिन पुरुपनकं उत्तमसंस्कारसे जो कदाचित बल्ज्ञा-
नी आचायेसे वेदांतमंथके श्रवणकी प्रामि होय जावे, तब सुने
अर्थकूं निध्चयकरिके कहें हैं-“परमानंद हमारेकूं, गंथ और
आचार्यकी रुपासे प्राप्त भया है.” यह उनका कहनेका अभिप्राय
है, आत्मा तो परमआनंदस्वरूप अगे भी धा; पतु भेरा आसा
परमभानंदरूप रै” इसरीतिते भान नहीं हमै था यते अपराषकी
न्या था आचार्यद्वारा प्रंथभ्वणसे परमानंदका बाद्धिविषि भान
होंगे है यातें परमानंदकी प्राति कर हँ । इसरीतिसे भराषकी मी पामि
वतनेते प्रमानंदकी भ्रापिठपं बथकृा प्रयोजन संभवे है. जेसे
সাদক্ষী সাদি রক্ষা प्रयोजन है तैसे नित्य निवृत्तकी निवृत्ति भी
प्रयोजन संभव है. दृशंत जेवरीविये सर्प नित्यनिवत्त है ओर जेवरीके
नाने निवृत्त होंगे है, पैसे आत्माविषे संसार नित्यानिवृत्त है;
ताकी निवृत्ति आत्माके ज्ञानसे होंगे है, यातें नित्यविवृत्तकी
निवृत्ति और नित्यप्रावकी श्रामि मेथका प्रयोजन है॥ २७ ॥
८“कारणतहित जगत्की निवृति ओर परमानंदकी पराति প্রথ-
का प्रयोजन है ” यह पूर्व कह्या सो सुषवे नरी. कहते निषरात्त
नाम ध्वंसका है. ध्वंस भौर नाश दोनों पर्याय शब्द हैं. सो नाश
-जभावहप ह याति मोक्षविपे भावरूपता ओर अमावहपता दोनो .
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