ग्रामीण समाज | Gramin Samaj

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Gramin Samaj  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग्रामीण समाज १३ जूता खरिदवा दिया ! आर फिर ठम वदी जूता पहनकर वेणीकी तरफसे गवादी दे आये ! खक्‌ खक्‌ खक्‌ । * गोविन्दकी आँखें छाल हो आई। उसने पूछा--मैंने गवाही दी ! धर्म०-- गवाही नहीं दी १ गो०--चल झूठा कफहींका । घर्म०-- झठा होगा तेरा बाप ! गोचिन्दने अपना दूय हुमा छाता हाथ उठा लिया और उछलकर कहा--अच्छा, तो आ साले ! घर्मदासने अपनी बॉसकी लकड़ी ऊपर उठाकर हुँकार किया और तब फिर खूब जोरोंसे खॉसना झुरू कर दिया। रमेश घबराकर दोनोंके बीचमे आ खड़े हुए. और स्तंमित हो रहे | धर्मदास अपनी लकड़ी नीचे करके জীব हुए बैठ गये और बोले--मैं रिश्तेम उस सालेका बड़ा भाई होता हूँ कि नहीं। इसीलिए, सालेकी अक्विल तो देखो-- गोविन्द गाँगूली मी अपने हाथका छाता नीचे रखकर यह कहते हुए, बैठ गये--हैं; यह साला मेरा बढ़ा भाई ই। शहरके हलवाई अपनी भट्टीका ध्यान छोड़कर यह तमाशा देख रहे थे। चारों तरफ जो लोग काम घन्वेमे लगे हुए; थे, वे लोग भी यह हो-हछा सुनकर तमाशा देखनेके लिए आ पहुँचे । लड़के-बचे खेल छोड़कर लड़ाईका मजा छेने लगे और उन सब लोगोंके सामने रमेश লাই তলা और आश्चर्यके हत-बुद्धिकी तरह स्तव्घ होकर चुपचाप खडे रहे | उनके मुँहसे एक बात भी न निकली [यह क्या हो रहा है! दोनों ही इड्ध, भले आदमी और ब्राह्मण- सन्‍्तान है। ऐसी मामूली-सी बातपर ये लोग नीच जातिके लेगोंकी तरह गाली-गलछौज कर सकते हैं ! बरामदेमें बैठे हुए भैरव कपड़ोंके थाक लगा रहे ये और ये सब वार्ते देख और सुन रहे ये। अब वे उठकर वहाँ आ पहुँचे सौर रमेशसे कदने लगे--फोई चार सो घोतियोँ तोदो चुकी] क्या अभी ओर घोतियोंकी जरूरत होगी १ लेकिन रमेशके मुँहसे हठात्‌ कोई बात ही न निकली | रसेशका यह अभियूत भाव देखकर मैखको ईैसी मा गई ! उन्दने बहुत ही कोमल स्वरसे समझाते हुए कहा--छीः गेगूली महाशय ! बाबू तो बिल्कुल दी अवाक्‌ हो गये हं वावू, मप इन सब्र वा्तोका कुछ खयाल न कीनिएगा } इस तरहकी ग्रा, २




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