सम्यक्त्व पराक्रम भाग 1 | Samyaktva Prakram Part-1

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Samyaktva Prakram Part-1 by जवाहरलालजी महाराज - Jawaharlalji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सृत्रपरिचय-& - भेद नही होता । प्रकृति सब के लिए पानी बरसाती है 3 प्रकृति समान रूप से सनका जसा पोषण करती है, वेसा पोषण दूसरा कोई नहीं कर सकता । जिस प्रकार सरोवर या कप में से घडा भर लेने से जल अपना माना जाता है, तथापि जहाँ से पाती लाया गया है, वह जलाशय सबको पानी देता है.। इसी प्रकार जिन- वाणी सरोवर के समान है। जिनवाणी के इस शीतल सुधा- मय सरोवर मे से अपनी बुद्धि द्वारासूत्ररूपी घट मर लिया जाये तो कोई हानि नही, परन्तु यह वाणी तो भगवान्‌ की हीहै। . | | कह्ने का श्रारय यह है कि नियु क्तिकार ने जो तु शब्द का प्रयोग किया है, वह इस बात को स्पष्ट करता है कि आधचारागसूत्र पढाने के परचात्‌ उत्तराध्ययन पढाने का क्रम पहले से चला आता था, परन्तु जब दशवेकालिकसूत्र छौ रचना हुई ओौर उसने आचाराग का स्थान ग्रहण कर लिया, तब भी उत्तराध्ययनसूत्र तो दशवेकालिक के बाद ही पढाया जाता रहा । इस प्रकार क्रममे किचित्‌ परि- वर्तन होने पर भी प्रस्तुत सूत्र का “उत्तराध्ययन' नामक सार्थक ही बना रहा । पहले दशवैकालिक श्रौर पीछे इस सूत्र का पठन-पाठन होने के कारण यह्‌ उत्तर ही रहा । - दशवेकालिकसूत्र के पञ्चात्‌ इस सूत्र का अध्ययन- श्रध्यापन होने की दृष्टि से भी “उत्तराध्ययनः' नामक सार्थक ही है और सूत्र प्रधान नही किन्तु क्रमप्रधान होने के कारण भी उत्तराध्ययन! नाम उचित है। जिनवाणी में सभी सूत्र प्रधान हैं, अत. उत्तर शब्द का अर्थ क्रमप्रधान मानना ही सगत प्रतीत होता है ।




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