सप्तर्षिग्रन्थ | Saptarshi Granth

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Saptarshi Granth by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दर्ज का ऊँ जज ही व. के डे जि का जप जल जज जि जज पक ट नीच. तीन वि. दी. कि... नीच. दवीच न. दि दी. वी... दि... कि कि न छ सपतर्षिग्रन्य ।. ३ | ही सीननानानान रजानानजायपगिललननपरनरपए परिजन ननना इस छिये देखतें हैं कि इस जगतमें उसी जलसे ... समस्त कांय्य सम्पन्न होता है और प््वतके ऊपरके | . ह जलसे कोई काय्य नंहीं होता । परन्तु पव्वंतके . 3 ऊपर जल न होनेसे नीचे पुथ्वीसें नदी शस्य 5 जीवका देह इत्यादि कोइ पदाथ उत्पन्न नहीं 4। होसकता जैसे वृक्षका मूल सत्तिकाके अंदर है ३। परन्तु उससे वृक्षका किसी प्रकारका उपकार कोई । 5 नहीं देखता उस सूखके न होनेसे वृक्ष पत्ते फूल ि है फल इत्यादि कुछ भी नहीं होते पर्ववतके 5 ऊपरके जठका नदीके जलके संग तथा वृक्षके मेलके साथ वृक्षका जैसा सम्बन्ध है परमात्साके ं सांथ भी ठीक वेसा ही सम्बन्ध है। इस लिये | ओत्मासे ही यह जगत्‌ और इसमें जितने पदाथ | । और जीव हें संघ उत्पन्न होते हैं । इसी लिये | . 5 आत्माको क्रियावान्‌ कहते हैं। परमात्सासे यह | सष्टि नहीं हुई इसी कारण परमात्माकों नि्ुंण 5 कहते हैं परमात्मा गुणातीत है इस लिये | । मु श्र सना लिये हमको अपने शुऋ्रका रक्षा करना बहुत ही जरूरी है । कारण ्‌ कि शुक्र ही हमारे शरीरका रक्षक है पुत्रार्थ क्रियते भाग्या अर्थात्‌ पुत्रके वास्ते ऋतुरक्षा करना चाहिये । हु . . नका या ण याफलरलापलणिआललालनलणलनलाप्तपतर गत ण्पहलफध्तरं ुमप्यॉ पी डे जे शा 0 श्र ४1 || 1 गा | ही | 1 ॥ पु 1 | 1 प्र धर 1 प्‌ दयु्ण दूत # ह 1




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