मंथर ज्वर की अनुभूत चिकित्सा | Manthar Jwar Ki Anubhoot Chikitsa

Manthar Jwar Ki Anubhoot Chikitsa by हरिशरणानन्द वैध - Harisharananand Vaidh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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% प्रथम परिच्छिद्‌ ॐ ৫ © (५ ठयाधियों की प्राचीन व अवोचीनता पर एक इष्टि । बहुत से ग्यक्तिये। की धारणा दै कि सष्टी मे जिन सजीव व निजीव पदाथौं कौ रचना दोनी थी वह सृष्टि के आरम्भ में ही एक वार हो चुकी है । अब न इस भूमि पर निर्जीव-पदार्थ वन सकते हैं न सजीव प्राणि उत्पन्न हो सकते है । क्योंकि, सर्वे शाक्तेमान्‌ स्वज्ञ ईश्वर ने जो कुछ वनाना था आवश्यकतानुसार एक बार ही वना दिया । इस धारणा पर अनेकों काल से जनता विश्वास बनाये बैठी हे, प्रत्येक धार्मिक विद्वान्‌ भी इसी पक्त में अपनी सम्मति रखते हैं | किन्तु प्रकृति-निरीक्षक-विद्वानों न आज एक शताब्दी से जो प्रायोगिक खेजे जारी को हैं उनसे पता चलता है कि उक्त मिद्धान्त सही नहीं, अनेकों प्रत्यक्ष-प्रमायों से उनका खण्डन हा जाता है । इस समय बहुत सी सजीव सृष्टि ऐसी देखी जा रही है जिसका पूर्वकाल में चिन्ह तक नहीं मिलता था, कई ऐसे भी प्राणी हैं जिनका अस्तित्व अब देखने में श्रारह्या है, इसी तरह अनेक निर्जीव यागिकों का हाल है। ससे भिन्न छनिक प्राणियों के सम्बन्ध में कुछ प्रमाण ऐसे मिलते है जो उनका पूवंकाल में होना तो सिद्ध करते हैं, किन्तु इस समय उनके वश का चिन्द तक नहीं मिलता, उनके चिन्ह केवल फोसीलों ( प्राचीन भूमियत अस्थि पिश्वरो/) के रूप में दी मिलंते दें । हम इन उपरोक्त सजीव निर्जीवों में से किसी के भी उदादरण नदीं रखना चाहते । क्योकि यद हमरे विषयसे दूर दै, हा हम कुछ ( > 9.6




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