संक्षिप्त आत्मकथा | Sankshipt Atamkatha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चाल-विवाह षु हाने ल्गी। पर यों वार-बार तो कौन जाने देता? फिर भी अपने मनमें मेने इस नाटककों सैकड़ों वार खेला होगा। मुझे हरिदचन्द्रके सपने आते। मनमें एक ही धुत रहती -- हरिब्चन्धकी तरह सत्यवादी सब क्‍यों नहीं हो सकते ? ' जैसी विपत्तियां हरिइचन्द्र पर पड़ीं, वैसी विपत्तियोंको सहना और सत्यका पालन करना ही वास्तविक सत्य है। हरिइचन्धका दुःख देखकर और उसकी याद करके में वहुत रोया हूं। इन्हीं दिनों मेने 'हरिइचन्द्र” नाटक देखा। उसे वार-वार देखनेकी इच्छा ३. बाल-विवाह १३ वर्षकी उमरमें पोरवन्दरमें मेरा विवाह हुआ । मेरे मझले भाईका, मेरे काकाजीके छोटे लड़केका और मेरा विवाह एकसाथ हुआ। इन तीनों विवाहोंकी तैयारियां कई महीनोंते चल रही थीं। हम भाइयोंकों तो इन तैयारियोंसे ही पता चला कि विवाह होनेको है। उस समय मेरे मनमें तो इतना ही था कि अच्छें-अच्छे कपड़े पहनेंगे, वाजे व्जेंगें, अच्छा भोजन मिलेगा और एक नई लड़कीके साथ विनोद करनेकों मिलेगा--इससे अधिक ओर कोई अभिलापा न थीं। विपय भोगनेकी वृत्ति तो बादमें पैदा हुई। व्याह होने पर दो निर्दोष वालकोंने अनजाने संसारमें प्रवेश किया। हम दोनों एक-दूंसरेसे डरते थे; शरमाते तो थे ही। घीमे-बीमे एक-दूसरेको पहचानने लगें; बोलने लगे। हम दोनों समान उम्रक्े हूँ। मेने पतिकी ठसकसे रहना शुरू किया। उन दिनों निवन्धोंकी छोटी पुस्तिकाएं निकलती थीं। उनमें से कुछ निवंध मेरे हाथमें आते और में उन्हें पढ़ डाल्ता। यह जादत तो थी ही कि पढ़ने पर जो पसन्द न आये उत्ते भूल जाना और जो पसन्द जाये उस पर अमल करना। पढ़ा था कि एकपत्नी-ब्रत पालना पतिका धर्म है। हृदयमें यह बात रमी रही। सत्यका शौक तो था हो, इसलिए पत्नीके साथ विश्वासबात हो ही नहीं सकता था; इसी कारण यह भी समझमें जा चुका था कि दूसरी स्‍त्रीके साथ संबंध नहीं रह सकता। लेकिन मुझे एकपत्नी-ब्रत पालना है, तो पत्नीकों एकपति-त्रत पालना चाहिये। इस विचारके कारण में ভুতু पति জন गया। पालना चाहिये: में से 'पलवाना चाहिये के विचार पर मे आ पहुंचा। और जगर पलवाना हूँ तो मुझे निगरानी रखनी चाहिये। पत्नीकी पवित्रताके बारेमें धंका करनेका कोई कारण मेरे पास नहीं था। छेकिन ईरप्या कारण देखनेके लिए ठहरती




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