षट्खंडागम | Shatkhandagam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
42 MB
कुल पष्ठ :
966
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना [३
ই देवियां अपने स्यानको चली गई । मन्त्र-साघधनाकी सफलतासे प्रसन्न होकर वे आ. धरसेनके पास
पहुंचे और उनके पाद-बन्दना करके विद्या-सिद्धि-सम्बन्धी समस्त बृत्तांत निवेदन किया । आ.धरसेन
अपने अभिप्रायकी सिद्धि और समागत साधुओंकी योग्यताकों देखकर बहुत प्रसन हुए और “ बहुत
अच्छा ! कष्ट कर उन्होंने शुभ तिथि, झुभ नक्षत्र और शुभ वारमें ग्रन्थका पढ़ाना प्रारम्भ किया |
इस प्रकार ऋमसे ब्यास्यान करते हुए आ. धरसेनने आघाढ़ झुका एकादशीके पूर्वाह काले म्न्य
समाप्त किया । विनय-पूर्वक इन दोनों साधुओंने गुरुस ग्रन्थका अध्ययन सम्पन्न किया है, यह
जानकर भूतजातिके व्यन्तर देवोंनें उन दोनोंमेंस एककी पुष्पातढीस शंख, तुय आदि बादिश्नोको
बजते हुए पूजा की । उसे देखकर धरसेनाचार्यन उसका नाम * भूतबलि ! रकखा । तथा दूसंर
साधुकी अस्त-व्यस्त स्थित दन्त-पंक्तिकों उखाड़ कर समीकृत करके उनकी भी भूतोंने बड़े समारोहस
पूजा की । यह देखकर घरसनाचार्यनें उनका नाम ‹ पुष्पदन्त ' सखा |
अपनी मृत्युकों अति सन्निकट जानकर, इन्हें मेरे वियोगस संकृश न हो यह सोचकर और
वर्षाकाल समीप देखकर धरसेनाचार्यने उन्हें उसी दिन अपने स्थानकों वापिस जानेका आदिश दिया।
यद्यपि वे दोनोंही साधु गुरुके चरणोंके सानिध्यमें कुछ अधिक समयतक, रहना चाहते ये, तथापि
' गुरुके वचनोंका उछंधन नहीं करना चाहिए ' ऐसा विचार कर वे उसी दिन वहांस चछ दिये
और अंकरछेश्वर ( गुजरात ) में आकर उन्होंने वर्षाकाछ बिताया। वर्षकाल व्यतीतकर पुष्पदन्त
आचार्य तो अपने भानज जिनपालित के साथ बनवास देशको चले गय और भूतबलि भट्टारक भी
दमि देशको चदे गये । |
तदनतर पुष्पदन्त आचायने जिनपालितकरो दीक्षा देकर, गुणस्थानादि वीक्त-प्ररूपणा-गमित
सत्मरूपणाके सूर्जोकी रचना की ओौर जिनपाङ्तिक्रो पाकर उन्दं भूतबछि आचार्यके पास भजा ।
उन्होंने जिनपाछितिक पास्त वीसग्ररूपणा-गमित सप्ररूपणाक सूत्र देख और उन्हींस यह जानकर
कि पुष्पदन्त आचार्य अस्पायु हैं, अतण्व महाकमंप्रकृतिप्राशतका विच्छेद न हो जाय, यह विचार
कर भूतबलिने द्वव्यप्रमाणानुगममको आदि लेकर आगेके प्रन्यकी रचना की । जब प्रन्थ-रचना
पुस्तकारूढ हो चुकी तब अपेष्ठ झुका पंचमीके दिन भूतबलि आचार्यने चतुर्विध संघके साथ बड़े
समारोहसे उस ग्रन्थकी पूजा की । तभीस यह तिथि श्रुतपंचमीके नामसे प्रसिद्ध हुईं। और इस दिन
आज तक जैन लोग बराबर श्रुत-पूजन करते हुए चले आ रहे हैं' | इसके पथात् भूतबलिने
अपने द्वारा रचे हुए इस पुस्तकारूढ़ पट्खण्डरूप आगमको जिनपालितके हाथ आचार्य पुष्यदन्तके
पास भेजा । वे इस पद्छण्डागमको देखकर और अपनेद्वारा प्रारम्भ किये कार्यकों भकीभांति
सम्पन्न हुआ जानकर अलनन््त प्रसन्न हुए और उन्होंन भी इस सिद्धान्त भ्रन्थकी चतुर्विध संघके
साथ पूजा की |
সপ শপ
१ ज्योष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुवंध्यंसंभसमवेत: । तत्पुस्तकोपकरण ब्यंधात् क्रियापूर्वक ঘুতাস্ 103২1)
श्ुतपअुचसीति तेन प्रत्याति तिथिरयं परामाप । अद्यापि ग्रेन तस्यां श्रुतपूर्जा कुर्वते जना: ॥ १४४ ॥
( इन्दरनन्दि श्रुतावतार }
User Reviews
No Reviews | Add Yours...