सौन्दरनन्द : साहित्यिक दार्शनिक गवेषणा | Saundarananda Sahityika Evam Darsanika Gavesana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८५७) कालिदास की नुतन कल्पता बाद की है और इखते अश्वघोष को पूर्ववर्तिता ही सिद्ध होती है । इन्ही समानताओं की तरह कवि की कुछ गौर कल्पनां ह, जो प्र स्थलों पर मिलतो थुलुती सी हैं । लेकिन इन समानताओं के लिये कवि पर दोषाशोपण नही किया जा सकता है, क्योकि अनूठी अनूठी कल्पनाओ का वरदान सरस्वतो से किसी एक को हो नहीं मिछ जाता वह तो घब केलिये है जिका प्रयोग कवि काछ और सीमा से परे होकर करता है। एक अग्यतम समानता देखिये -- अरद्वघीष-- त गौरव बुदृधगत चकपं भानुराग पनरावक्यं । खोऽनिश्चयान्नापि ययौ न तस्थौ तरस्वरद्धेप्विव राजहष ॥१ कालिदाष-- त वीक्ष्य वेपघुमती खरह्ागयष्टि निनेपणाम पदमुदघ्नमूद्वहन्तो । मार्गाचचम्यतिकराङलितेव विधु यैकाधिराजवनया न ययौ न तस्थौ ॥) इसमें कालिदास से अश्वघोष की ही उपमा अधिक प्राणवन्त और स्पृहणीय है साथ हो ओबिस्पपूर्ण भी । इन्ही पद्मो के जाधार पर श्री एच० पी० शास्त्र मे कहा है कि यदि कालिदास को प्रसिद्धि उपमा पर ही आधृत है तो भश्यघोष उसे पार कर जाते हैं।? इन उद्रणों में आश्चयंजनक धमानताएँ हैं। देखने से ऐसो प्रतीति होती है कि किसी ने एक को रचता का अवलोकन अवश्य किया होगा । উক্ধিন मुथ्म यह कहते का दुस्साहस मही कि किसने किसको रचना का अवलोकन किया । किर भी मैं इतना अवश्य कह सकता हूँ कि अश्वधोष को अपेक्षा कालिदास को कविता काथ्यकछा की दृष्टि से अधिक पूर्ण और सौन्दर्य वछित है। अनुहझृति की बात बड़ी नयारी है। अगर कोई यह कहे क्कि कालिदास में अश्वघोध की कल्पना का अपहरण कर उस पर हवीय॑ मौछिक प्रतिभा को मुहर छग्पकर अधिक प्रायवन्त बना दिया है. तो दूदरा आालोचब भी यह कह सकता है कि ढालिशास की अपेक्षा अश्वधोष हे काब्यो मे ही श्त्रिमठा अधिक प्राप्त होती है। सध्कृत टाहित्य के आडोचनासेत्र में यह मान्यता घिद्धप्राय हैं कि जिसमे जितनी झृत्रिमठा होगी वह उतना ही अत्याधुनिक होपा । इसे मान लेने पर यह सिद्ध होगा कि अश्वघोष कालिदास के पीछे १ सौदरनन्द,४।४२॥ २ करुमारखभव, ५।२५1 ३, सौस्द रतन्द की भूमिका 1




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