योगवासिष्ठ भाग - 4 | Yogvasistha Part - 4

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Yogvasistha Part - 4  by पं श्रीकृष्ण पंत - Pt. Shree Krishna Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समै १} माषालुवादसद्दित ४२७७ सरसेन्द्रियदृतेस्ते ` शवतोऽङर्वदस्तथा । संसारानथसाथों्य न कदाचन शाम्यति )॥ २२ ॥ निःपङ्करपमरंन्ज्वालायसत्रामबुस्यन्दवच्दि | , स्पन्दसे तदनन्ताय भयस परिकत्पसे ॥ २२ ॥ एतदेव থই দ্ধ जन्मञ्वरनिनारणम्‌ । यदवासनमभ्यस्ता = निजर्मसु कदत ॥ २४ ॥ अवासनमसडूल्प॑. यथाप्राप्तानुवृत्तिमान्‌ । शनेशक्रभ्मामोग इन स्पन्दस्त कर्मसु ॥ २५ ॥ मा कमफरवुद्धिभूमा ते सङ्गोऽस्त्वकरमेणि । उभयं वा स्यमैकखघ्ुमयं वा समाभ्रय ॥ २६॥ घहुनाउत्र किपक्तेन संक्षेपादिदमुच्पते | सड्डल्पन मनो बन्धस्तदभावो विश्युक्तता ॥ २७॥ इम्द्रियवृत्तियोंको विषयोंकी ओर जानेसे न रोकनेमें तथा उन्हें सरप्त बनाये रखनेमें वया होगा ! इस जाशझ्पर कहते हैं--'सरसे०” हत्यादिसे । यदि आपड़ी इन्द्रियवृत्तियां बाक्ष विषयोंकी जोर हगी. रहेंगी तथा भाप उन्हें सरस बनाये रबलेंगे, तो धादे आप विपयोंका उपभोग करें यान करें, किन्तु घापका यह धेसारके अनर्था समूह तो कमी मी शन्त न दोगा ॥२२॥ सद्वस्पशुन्य होकर यदि आप वायु, अम्निज्वाला, यन्त्र और जहके समाव জন্হ करते रहेंगे, तब वो जाए धवम्त अयके लिए समर्थ हो सकेंगे ॥ २३ ॥ जन्मरूपी ज्वरके निवारणके लिए यही सबसे बढ़कर उत्तम उपाय है कि अपने कर्मोंमें जो कर्तत्व जभ्यस्ठ हो, वह बासनारहित हो ॥ २४ ॥ वासनाओं और सहृष्पोंसे शुन्य होकर गरब्ध-प्राप|त कार्यो के अनुसार बर्ताव कर रहे जाप चाकके ऊपर अमण करनेवाले सन्तिवेश ( घयादि रचनाविशेष ) की नाई भीरे-पीरे उत्तरोत्तर उपश्रमशील होते हुए अप्ने कमोंमें स्पन्द करते रहिये ॥२५॥ कर्मफलमें आपकी आमसक्त बुद्धि न हो और कर्मोंके त्यागमें भी आपकी जआासक्ति ( कर्मत्यागके फलमें आासक्ति ) न हो। इन दोनोंका छाप त्याग फ़र दौजिये या आप इन दोनोंका आश्रयण कीजिये। फलमें आसक्ति न करनेपर कर्म करते या छोड़ देनेमें कुछ भी विशेषता नहीं रहती ॥ २६ ॥ - ह है श्रीरामजी, जब इस विपयमें और जषिक कहनेकी জানহযক্ধনা नहीं है।




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