ज्ञान समुच्चय सार भाग - 2 | Gyan Samuchchay Saar Bhag - 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
294
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्री तारण स्वामी -shree taaran swaami
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[. ७ ३
| करय বাথ ४ प्रकृतियों (११६-९३६) -..
निमे शमवानि का केवा भा सिर को রাজন हीते श शु है। 34 ये शकृति क्तं
की जवो सतित ह । उशके उव कि चै लये ददे वत ती आदि शोक की नहीं सैष सेंकते मे
कीन; सह्; जतै, भेभा, भके, गिरय जीद रिवो के भति रथि कें অন্য सिर्कतिये मेरे
खाया है । वेदना प्रकृति का दये दि पं शोधके गेही हो सकता । वेदकं संर्भ्यवत्व के कीर्ति में
विकथाओं से रहित धर्मानुराग अवश्य होता है, संसार को स्थिति भी कम हां जातो है, पर ऐसा
जीव कर्मो की क्षपणा करने डेः कणन পড় हौंशों ! भो क्रेस्यस्टरोष्ट लेंशिनुबन्धी चारों कषायों से
मृक्त हो जाता ই তরি उनके जक्मव मे जो स्वरूपाचरण चारि होता है वह मोक्ष का कारण है ।
इनिंम्वानुर्बन्धी चार कैषाय (१२३-१४६)
. शदे भात का तिभाव भाव है। पुष्य का लोस असन्तामुबस्धी सीम है| इसके रहते हुए
शास्त्र का अभ्यास आदि सब क्रिपाये सिथ्या हैं। वह अनेक अनर्थों को णड़ हैं ॥ श्रूत् के जानने
का लोभ, चक्रवर्ती आदि पद प्राप्ति का लोभ, शुद्ध सम्बन्दष्टि के नहीं होता | जो लोभ अर्थात्
रागभाव शुद्ध घर्म की प्राप्ति का होते है 4ह मौक्षंगामी जोघों के हो होता है ।
.... हिंसा; कृसत्य तथा आततरौद् परिणामों के साथ भो क़रभाव होता है बह अकंच्तानुबन्धी
क्रोध है | इससे स्क्राथर और विकलतयों में यह जीव पैदा होता है । वह नाना प्रकार कै अनर्थ
की जड़ है ' छंद सभ्यष्टेष्टि भौर साश्रु उससे भुक्त रहति है ।
वहे जीवे अकषौर्वते वदथ कौ पनि करता है, उनके জিবি असत्य प्रलाप करता है । ফার্সী
थुरुषों ने उसे धो डाला है ।
माया छल कपट क दस्य गू महै! ओ भमनर नही है उसके लिये यह जीव मायाचारी
करता है, माया मिध्याज्ञान कै समान है, मिथ्याराग कै समान है, माया दुर्गति का कारण है । शुभ
मेह नहीं होती | फूट कर्म, कूट हंषिट और कट भावना ये संघ माथा के लेंदीण हैं। योगी उसका
হামা र देते हि)
আতিক सम्थग्ट्ष्टि (१५०-१७९)
योगी पुरुष तीन प्रकार के मिथ्यात्व और चार कषायो से मुक्त होते हैं । जो इनसे मुक्त हैं
वे अविरत सम्यग्हष्टि हैं। थे स्वभाज़-सन्मुख होकर शुद्ध द्गष्डि स्वरूप आचरण करते हैं ।
शु क्या है ओर अशुद्ध क्या, इसे वे जानते हँ । शाश्वत पद क्या है, मोक्षमामं क्या है, आत्मा
परेत का सवरप बैंया है, इसे भी वे अच्छी तरह से जानते हैं । मेरा आत्मा द्रव्य
व से सिविकारे, कस कि नित्य और ज्ञॉनस्थरूप है, 9 उनकी दरेष्टि मे अते प्रकर भसन
1 है। देव॑, हक र शस्त्र आदि कै जैसा स्वरूप जिनैन्द्र देव ने कहा इन्दी
উস अड्ढी होती है! थे मिध्या देव, गुरु और धर्म ही श्रद्धा से न ध, उनके
User Reviews
No Reviews | Add Yours...